प्रतिबिम्ब लज्जा को बाहर नहीं निकाल सकता , द्वारा बोनी रोस ,
मुझे सिखाया गया था यह दोहराने को “ मैं समूची हूँ, उत्कृष्ट हूँ, संपूर्ण हूँ, “ | उस समय मुझे उन शब्दों कि परिभाषा का ज्ञान नहीं था|इसलिए मेरा अहम् कहता था “ वास्तव में? मैं हूँ?मेरे में यह देखने के लिए धन्यवाद| “ उसके पश्चात में लग जाती थी अपने अहम् की ‘ समूची , उत्कृष्ट एवं संपूर्ण “ की परिभाषा को सही ठहराने में , उस कोशिश में कि मैं सबसे अपनाई जा सकूं|
आत्मविषयक ज्ञान मेंअहम्. कभी कभी , सब कुछ पर काबू कर लेता है, और हम एक दूसरा प्रतिबिम्ब विकसित कर लेते हैं जो लज्जा को आध्यात्मिकता स्वरूपी दानवीय भ्रम से ढक देता है | हमारी अध्यात्मिक यात्रा के सहयात्री , आपसी तुलना के नए निशाने बन जाते है | हम कोशिश करने लग जाते हैं, अध्यात्मिक दिखने की , ताकि हम सबमें अपनाये जाने को सही ठहरा सकें| हमारी ‘ ज्यादा अध्यात्मिक’ बनने की कोशिश का प्रतिबिम्ब , युद्ध करता है, हमारी लज्जा के प्रतिबिम्ब से, और यह लड़ाई हमें और भी गहरे कुँए में खींच ले जाती है|
डॉ मार्टिन लुठेर किंग ने कहा “ नफरत से नफरत हटाई नहीं जा सकती”|, एवं अन्धकार से अन्धकार हटाया नहीं जा सकता” | और लज्जा और प्रतिबिम्ब पर भी यही लागू होता है|प्रतिबिम्ब से लज्जा बाहर नहीं की जा सकती| लज्जा से प्रतिबिम्ब बाहर नहीं किया जा सकता | जब भी हम प्रतिबिम्ब को प्रतिबिम्ब से ही ‘ टूटे को जोड़ने’ ( fix) कीकोशिश करते हैं, हम या तो पूरी तरह असफल हो जाते हैं; और या हम एक झूठी जीत के कारण असफल हो जाते हैं - या यूँ कहें तो हमें लगता है हमने प्रतिबिम्ब पर विजय हासिल कर ली है, पर सही में हमने प्रतिबिम्ब को अस्थायी रूप से ही नियंत्रित किया है|हमने सिर्फ “उत्तेजित खाद्य पदार्थ” स्वरुपी प्रतिबिम्ब को , एक हवा बंद कटोरीदान में ठूंस दिया है|हम ऊपर से उस पे ढक्कन लगा के उसे संग्रह स्थल में रख दिया है| उस दबाव से प्रतिबिम्ब खमीर सरीखा बन जाता है, और अंततः विस्फोटित होता है एक कृत्रिम कायरता में , जो हमारे जीवन की परिपूर्णता में बाधा डालने लग जाती है |
मैं अपने बारे में जानती हूँ, जब मेर अहम् का मुझे पे काबू था – और जब भी मुझे ऐसे क्षण आये, जिनमे में अपने को टूटेपन. अपूर्णता,और अधूरेपन में स्थित पाया, तो मैं अपने आपको उस उदाहरण स्वरूपी कटोरीदान में और जोर से बंद कर लिया | मैं नकारात्मक विचारों को पास नहीं आने देती थी|मैं लम्बी लम्बी प्रार्थनाएं करती थी कि बाहरी कामयाबी मेरे पास आये| मैं मान रही थी कि अगर मैं सिर्फ खूब सारी प्रत्यक्ष मरहम पट्टी से अपने जीवन को बाँध लूं , तो लोगों को लगेगा में ठीक ( ok) हूँ |उन्हें लगेगा मैं “सब सही” कर रही हूँ, और मै सही में “समूची , उत्कृष्ट एवं पूर्ण “ हूँ, जैसा कि सभी गुणी, अध्यात्मिक लोग होते हैं| अगर मैं किसी भी तरह औरों के अपनाने योग्य हो जाऊं , तो शायद मैं भी अपने को अपना पाऊंगी | मैंने अपनाये जाने पर बहुत काम किया और मैं काफी हद तक कामयाब भी हुई, उस ववत तक , जब तक कि मेरा लज्जा से भरा कटोरीदान टूट के फट नहीं गया, और तब मैंने अपने आप को पाया दुःख के कष्ट को पोंछते हुए, अपने स्वयं के नकारे अहम् से|
और फिर मैं एक रहस्यमयी . अद्वैत राह पे निकल गई, और “ समूची,उत्कृष्ट एवं पूर्ण” की नई व्याख्याएं सीख पाई | समूचेपन में टूटापन सम्मिलित है, उत्कृष्ट का शाब्दिक अर्थ है जिसमे सब शामिल हैं, एवं पूर्ण का मायने है उद्विकासी (evolving)| मैंने इस असय्त्य प्रतीत होने वाले ज्ञान को अपने जीवन में उतारा और मैं अपने आप के साथ, एवं अन्य के साथ , विनम्र होती चली गई|
रिचर्ड रोहर का कहना है, “ जिसे आप परिवर्तित नहीं कर सकते , उसे आप फैलायेंगे या बाहर भेजेंगे “ | मैंने अपने जीवन की ओर करुणापूर्ण रूप से देखा मैं अपने अन्दर दबी हुई लज्जा को कैसे फैलाया या बाहर निकाला है| मेरे इस फ़ैलाने ने कई रूप लिए थे – अति संवेदनशीलता , आंखें छुपाना, अति सतर्क, एवं आलोचनात्मक रवैया अन्य के प्रति एवं अपने भी प्रति | मेरी इस फैलाई हुई लज्जा के प्रति , बढ़ी हुई जागरूकता, मुझे एक ऐसी नई जगह ले आई, जहाँ विरोधाभास भी था और सम्मति भी थी|
मैं ये देखने को तैयार थी कि लज्जा जागृत करने वाला अहम् , प्रेम की राह का ही हिस्सा है, पर वैसे नहीं जैसे मैं सोचती थी कि वो है|लज्जा इसलिए नहीं वास करती कि वो हमें छोटा दिखाए, वो इसलिए वास करती है कि वो हमें नम्रता के माध्यम से , आतंरिक महानता की ओर ले जाये | हम लज्जा को स्वीकार करते हैं| हम मानवता के साथ दोस्ताना करते हैं, और उसे अपनी करुणा प्रदान करते हैं| हमारी करुणा हमें प्रेरित करती है अपने आपको बिना शर्त के अपनाने के लिए| फिर हम अपनी स्व निर्धारित /काल्पनिक हद को पार कर पाते हैं , दया , क्षमा एवं प्रेम की शक्ति द्वारा| दुसरे शब्दों में कहें तो, हम अपने से प्रेम करते हैं , अपने आपको प्रेम करने की क्षमता से भी बढ़ कर| हम सीख जाते हैं कि कैसे हम इश्वर को ,अपने माध्यम से, औरों को प्रेम करने दे सकते हैं| और ये प्रेम करने की क्षमता हमारे अन्य से प्रेम में परवर्तित हो जाती है|
मनन के लिए बीज प्रश्न “ आप इस धारणा से कैसा नाता रखते हैं कि लज्जा हमें नम्रता के माध्यम से हमति आतंरिक महानता की ओर ले जाती है? क्या आप उस समय की कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने आपको पूर्णतयः अपनाया हो, अपने प्रतिबिम्ब एवं सबके साथ? आपको अपने आपको, दूसरों से अध्यात्मिक राह में , तुलना करने से, कैसे बचा सकते हैं?