Practice Without Integration is a Waste

Author
Krishna Das
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Image of the Weekसमावेश किये बिना ध्यान करना बेकार है
- कृष्ण दास (१९ मार्च, २०१४)

मैं एक बार रोशी फिलिप कैपलो से मिला, जो "ज़ैन के तीन स्तम्भ" (The Three Pillars of Zen) के रचयिता थे। वो उन पहले पश्चिमवासियों में से एक थे जो जापान गये और जिन्होंने वहाँ गहन अभ्यास किया। वो बहुत उन्नत पार्किंसन रोग से पीड़ित थे और उन्हें बहुत शारीरिक परेशानी थी, और साथ ही इस बीमारी के कारण होने वाले अनैच्छिक ऐंठन से भी ग्रस्त थे। उनकी कही एक बात मैंने हमेशा याद रखी। जब दर्द से छटपटाते हुए वो वहाँ बैठे थे, उन्होंने मेरी ओर देखा और बहुत गम्भीरता से कहा," इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता कि आप कितनी साधना करते हैं. अगर आप उस साधना को अपनी रोज़-मर्रा की ज़िंदगी में नहीं उतारते, तो वो सब बेकार है।" इस कथन की शक्ति उनके आत्म-बोध की गहराईयों और उनके पार्किंसन की बीमारी से हर दिन चल रहे संघर्ष से निकली थी, और वो सीधा मेरे मन में उतर गयी।

हमें हरदम भय के साथ नहीं रहना चाहिए। हमें हर समय खिन्न और अकेला महसूस करते हुए नहीं रहना चाहिए। हमारे जीवन के सभी सम्बन्धों में जो विशवासघात और पीड़ा के भाव हमने महसूस किये हैं, हमें उन्हें जकड़ कर नहीं रखना चाहिए। हम चाहे कितना भी ध्यान, कीर्तन, योगाभ्यास, या किसी भी किस्म की साधना करते हों, फिर भी अपने दैनिक जीवन में आने वाले डर, और पूरी दुनिया से अलग होने के अहसास को उखाड़ फेंकना बहुत मुश्किल है। लेकिन असली आध्यात्मिक ध्यान का नतीजा आखिर इस डर और अकेलेपन के भाव को कम करना ही होगा। अगर हम असल में गा रहे हैं या खुद को या किसी दूसरे को करुणा भरा (loving kindness), समर्पण कर रहे हैं, तो हम अपने बारे में राय नहीं बना रहे होंगे। ये वो क्षण हैं जब हम उन अनात्मबोधी प्रक्रियाओं (unconscious programs) से शक्ति खींच रहे हैं, जो हमारे दिमाग में हर वक्त चलती रहती हैं कि हम कितने छोटे हैं या कैसे हम प्यार और वातसल्य के लायक नहीं हैं।

हमारी रोज़-मर्रा की ज़िंदगी में बहुत-सी चिंताएं हैं, बहुत-सा तनाव। हम बहुत जल्दी चलते हैं और आम-तौर पर अपने दिन के अचेतन प्रवाह में खो जाते हैं। हम अपने बाहर की चीज़ों को नियंत्रित नहीं कर सकते। हम औरों को अपनी इच्छा के अनुसार नहीं चला सकते। हम खुद को भी उस तरह नहीं चला पाते, जैसे हम चलाना चाहते हैं! अच्छी बात यह है कि अयोग्यता की भावना, हमारा आत्म-निर्णय, बस बेकार है; ये वो नहीं है जो ह्म असल में हैं। चीज़ें आती-जाती रहती हैं। जो आता-जाता नहीं रहता वही बताता है कि हम असल में कौन हैं और क्या हैं। इसका अनुभव करने के लिए हमें आध्यात्मिक साधना की ज़रूरत है।
जब हम कोई साधना करते हैं और अपने अस्तित्व की सूक्ष्मता का अनुभव करने लगते हैं, तो हमें दिखाए देने लगता है कि लालची होना, भयभीत होना, ईर्ष्या रखना, क्रोध करना, दूसरों पर खुद को थोपना, और अपने रिश्तों में चालाकी दिखाना, असल में हमें दुःख देता है। जब हम इनमें से किसी उग्र स्थिति में फंसे हुए होते हैं - हममें से ज़यादातर लोगों ने सिर्फ यही जाना है - हम से ज़यादा कष्ट कौन पाता है? कोई नहीं। हम अपने भारीपन के बारे में सच्चाई महसूस कर सकते हैं और सोच सकते हैं कि हमारे दर्द का कारण कोई और है, लेकिन हम ही हैं जो इस आग में जल रहे हैं! ऐसे क्षणों में ध्यान करना बहुत मुश्किल है। उदाहरण के लिए, अगर मैं किसी बात पर बहुत नाराज़ हूँ, तो बैठ कर जाप करना बहुत मुश्किल है। जब तक मैं चीज़ों को छोड़ना और अपने ध्यान की तरफ फिर से बढ़ना शरू नहीं करता, कभी कभी मुझे कुछ समय के लिए जलना पड़ेगा।

- कृष्ण दास "ज़िंदगीभर का जाप" (Chants of a Lifetime) से कुछ अंश

विचार के लिए कुछ मूल प्रश्न: आप अपनी ध्यान साधना का अपने रोज़-मर्रा के जीवन में समावेश कैसे करते हैं? क्या आप ऐसे समावेश के बारे में अपना कोई व्यक्तिगत अनुभव बांटना चाहेंगे? जो कुछ इस समावेश के रास्ते में आ रहा है, आप उसको कैसे छोड़ पाते हैं?


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