पुकार
-ओराया मौन्टन ड्रीमर
मैंने पूरी ज़िन्दगी ऐसा सुना है,
एक आवाज़ कोई नाम पुकार रही है जो मेरे ही नाम जैसा लगता है।
कभी वो आवाज़ धीमी सरसराहट-सी सुनाई देती है।
कभी ऐसा लगता है कि उसमें कोई बहुत ज़रूरी पैग़ाम छुपा है।
लेकिन वो हमेशा यही कहती है: जागो, प्रिय। तुम नींद में चल रहे हो।
इसमें तुम्हारी सलामती नहीं है।
पहचानो कि तुम क्या हो, और उस गूढ़ ज्ञान के रंग से
अपनी इंसानियत की तस्वीर को रंग दो।
तुम्हें कहीं जाने की ज़रुरत नहीं। जो तुम खोज रहे हो वो यहीं है।
उस चाहतों से भरी कसी मुट्ठी को खोलो और देखो तुम्हारे हाथ में पहले से ही क्या रखा है।
कुछ होने का इंतजार करने की क्या ज़रुरत,
भविष्य में क्या होगा, सोचने का क्या फायदा।
तुमने जो भी अभी तक चाहा है, वो सब अभी इसी पल में मौजूद है।
इस निरर्थक खोज में तुम बस खुद को थका रहे हो,
वापिस लौट आओ और विश्राम करो।
और कितनी देर ऐसे जी पाओगे?
तुम्हारी अतृप्त आत्मा एकदम सूख रही है, तुम्हारा मन ठोकरें खा रहा है। इतनी कोशिश!
अब छोड़ दो ये सब।
खुद को भगवान का दीवाना बना दो,
सिर्फ अपनी आत्मा की सुन्दरता के भरोसे को रखो।
उस प्रेमी को मौका दो तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा कर के गले लगाने का,
जब आशंका तुम्हें जकड़ने की कोशिश कर रही हो, तब भी प्रेममग्न नाचो।
याद रखो, केवल एक ऐसा शब्द है जिसे अपने सर्वस्व से कह पाने के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है।
जब वह शब्द तुम्हारे सामने आ जाए तो उसे अपना जीवन सोंप देना। चुप मत रहना, कंजूसी न दिखाना।
खुद को उस शब्द पर न्योच्छावर कर दो।
ये प्रेमगीत जो हम मिलकर लिख रहे हैं, उसमें लीन हो जाओ।
-ओराया मौन्टन ड्रीमर