वियतनाम में फ़रवरी की एक सुबह
- यूजीन हिल्डरब्रैन्ट
वह एक और सुबह थी चू लाई, वियतनाम में जहाँ मैं एक बहुत बड़े और भद्दे आर्मी बेस में स्थित था। फ़रवरी की उस सुबह जब मैं कीचड़ भरे गड्ढ़ों से बचता अपनी सुबह की ड्यूटी पर जा रहा था, मैंने अचानक अपने आप को एक टीले पर खड़ा पाया।
कोहरे के उस पार उन जामुनी पर्वतों को देख कर मुझे अचानक ऐसा लगा मानो मैं उन पहाड़ों में और वो पहाड़ मुझ में समा गए हों। वो नन्हे कीचड़ के गड्ढ़े अब उतने ही मेरे शरीर का अंग मालूम हो रहे थे जितनी की मेरे हाथों की अंगुलियां। वो नीरस हरा आर्मी ट्रक, वो कांटेदार तार का गोल जंगला और वो सब चीज़ें जो अब तक हमेशा मेरे मन में सिर्फ़ बुरे खयाल जगाती थीं, वो केवल इंसान की अज्ञानता मालूम हो रही थीं।
इतने में एक और जवान, जिसे मैं खास पहचानता नहीं था, उस मैदान में से गुज़रा और मैंने अपने मन में उसके लिये कुछ ऐसा प्््रेम महसूस किया जिसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। उसे देख कर मुझे कुछ एैसा अहसास हुआ जैसे कि वह जवान और कोई नहीं, बल्कि मानो उसकी काया में वो मैं ही हूं। मैं एक ऐसे आनन्द में मग्न हो गया जिसका अहसास मुझे पहले कभी नहीं हुआ था - जैसे मुझ में और किसी दूसरी वस्तु या व्यक्ति में कोई अंतर ही नहीं रह गया हो, जैसे मेरे चारों तरफ़ की किसी भी चीज़ के बारे में मेरा कोई मत ही न रह गया हो। बाद में जब मैंने इस अनुभव को शब्दों में प्रकट करने का प्रयत्न किया तो " एकत्व" ही एक ऐसा शब्द था जो मेरे दिमाग़ में आया।
करीब दो सप्ताह बाद जब मैं एल जी ब्रौंको पहुँचा तो वहाँ रखी कुछ किताबों में से एक किताब पर मेरा ध्यान गया जिसका नाम था - " द बुक... औन द टैबू अगेन्स्ट नोइंग हू यू आर" - ऐलन वौट्स ( " तुम कौन हो ये जानने की मनाही पर लिखी किताब")। जब मैंने उस किताब को पढ़ना शुरू किया तो लगा कि जैसे लेखक ने मेरे हाल ही में हुए अनुभव के बारे में ही लिखा है और उस वक्त मुझे वही अहसास फिर से हुआ। लेकिन इस बार जब मैंने उस अहसास को कसकर अपनी मुट्ठी में पकड़ना चाहा तो वो झटसे रेत की तरह मेरी अंगुलियां के बीच से निकल गिरा।
कुछ महीनों बाद जब मैं अपनी असली दुनिया अमरीका लौटने की तैयारी कर रहा था तब मैंने सोचा, " अब तो मुझे ज़िन्दगी की कुछ ज़रूरी असलियतों का ज्ञान हो गया है तो शायद ज़िंदगी पहले से कुछ आसान हो जाएगी, एकदम सीधी साधी। लेकिन मेरी ज़िंदगी तो पहले से भी ज़्यादा चुनौतीपूर्ण हो गई है। पर उस अनुभव ने मुझ जैसे ओक्लाहोमा निवासी संदर्न बैप्टिस्ट की ज़िन्दगी को हमेशा के लिए बदल दिया। फ़रवरी की उस सुबह ईश्वर की जो कृपा मुझ पर हुई उसके लिए मैं हर दिन ईश्वर का आभारी हूं, और साथ ही एक ऐसी अनुभूति का कि ये सुंदर अस्तित्व हर प्राणी में विद्यमान है चाहे उसका कोई रंग, रूप, वेश या भाषा क्यों न हो।
जबकि उस एकत्व के अनुभव के पीछे मैं ऐसा दौड़ता रहा जैसे डंडी पर लटक रही गाजर के पीछे गधा लार टपकाता हुआ भागता रहता है। लेकिन मैंने हौले हौले और काफ़ी कष्टप्रद तरीके से ये तो जान लिया है कि खुद को पूरी तरह से पहचान पाना और तुम और तुम्हारे आस-पास की दुनिया जैसी है उसे वैसे ही स्वीकार कर पानेपर ही उस खूबसूरत अनुभव का अहसास हर पल हमारे साथ रह सकता है। यही वो अनुभूति है जो इस स्वज्ञान की कठिन और दुखदायी राह को भी सुखमयी बना देती है।
- यूजीन हिल्डरब्रैन्ट
SEED QUESTIONS FOR REFLECTION: What do you make of the author's likening a seeker's seeking of oneness to a donkey chasing a carrot on a stick? How does your own seeking feel to you? Can you share a personal experience when you completely accepted this "wonderfully terrible world just as it is"?
Add Your Reflection
12 Past Reflections