उपहार देने में आने वाली चुनौती
- नितिन परांजपे (27 नवम्बर, 2012)
मैं एक ऐसे लक्षण से ग्रस्त हूँ जो काफी आम है, पर मैं फिर भी काफी अजीब महसूस करता हूँ। हालाँकि मुझे उपहार लेना पसंद है, लेकिन फिर भी उपहार स्वीकार करना मुझे कुछ अटपटा-सा लगता है। मेरे ख्याल से मूल बात ये है की इस प्रक्रिया में हम ये मान कर चलते हैं कि उपहार देने से, लेने वाले के मन में मेरे लिए अच्छा भाव उत्पन्न होगा। मैंने इस कारण को समझने की कोशिश की तो पाया कि इस बात में कुछ सच्चाई तो है, पर इस बात को समझ पाना उतना सीधा और साधारण भी नहीं है।
किसी को कुछ दे पाने में, लेने वाले के बारे में सोच पाना और उसकी दुनिया और इच्छाओं को जान पाना दोनों ही शामिल हैं। इस प्रक्रिया में हमारा पूरा ध्यान "हम" से हट कर "उन" पर चला जाता है, और जैसे-जैसे ऐसा होता है, अनजाने ही में लेने और देने वाले के बीच का फासला खुद ही, प्रेमपूर्वक, कम होने लगता है। किसी को भेंट देना उसके मन में प्रवेश करने का एक आसान तरीका है।
लेकिन आज के उपभोक्ता-प्रधान समाज में, उपहार केवल प्लास्टिक में लिपटी हुई चीज़ें-मात्र हो गए हैं; हमारी उपहार देने की इच्छा इस बात पर निर्भर हो गयी है कि बाज़ार में क्या मिल रहा है। बाज़ार में उपलब्ध किस्म-किस्म की चीज़ों की चमक पल भर के लिए हमें ये भुला देती है कि उपहार देने का कारण क्या है। हमारा ध्यान उपहार प्राप्त करने वाले की बजाए उपहार पर ही अटक जाता है। अंत में पाने वाला ऐसे "उपहारों" के बीच अटक जाता है, जो उसके किसी काम के नहीं हैं। साथ ही ये धारणा भी प्रधान होती जा रही है कि किसी चीज़ का "दाम" कितना है। उपहार देते समय जो भावनाएं पैदा होती हैं, उनसे ज्यादा उस चीज़ की कीमत क्या है, उसका महत्त्व होता जा रहा है। चीज़ जितनी महंगी हो, लगता है वो उतनी ही मूल्यवान भी है। मुझे दोनों किस्म के अनुभव हो चुके हैं - ऐसे उपहार पाने के जो मेरे किसे काम के नहीं थे, और साथ ही दूसरों के लिए ऐसे उपहार चुनने के जो मैंने सिर्फ खाना-पूर्ति के लिए खरीदे।
इस दिखावे की दुनिया में मेरे परिवार और उस सन्स्था ने जिसमें मैं काम कर रहा था, कुछ नया करने की ठानी। हमने सोच लिया कि बजाये बाज़ार से खरीदने के, अब हम हाथ से बनी चीज़ें ही उपहार में लोगों को देंगे। इससे हममें बहुत बदलाव आया। जब हम अपने हाथों से कुछ बनाते हैं, तो हम तुरंत अपने अंतःकरण से जुड़ जाते हैं, और साथ ही हम जिसके लिए वह तोहफा बना रहे हैं, उस व्यक्ति से भी हम आंतरिक तौर पर जुड़ जाते है। अपने हाथों से कुछ बनाने में समय लगता है, जो कि हमें निष्क्रिय उपभोक्ता बनाने की जो कोशिश है ,उसे भी चुनौती देता है। जबकि मेरी कृति बहुत महान नहीं थी, लेकिन मैंने उसे अपने पूरे मन से बनाया, और मुझे महसूस हुआ कि मेरे ऑफिस में काम करने वाले जिस व्यक्ति के लिए मैंने वह उपहार बनाया, उसे शायद बहुत पसंद भी आएगा। और ऐसा ही हुआ, जिससे मुझे बहुत खुशी मिली।
- नितिन परांजपे
SEED QUESTIONS FOR REFLECTION: How do you relate to the notion of ready-made gifts leading us to "forget the reasons for giving?" How do you stay mindful of your reasons for giving? Can you share a personal story of a gift that you chose to make with your own hands?
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