खिड़की के शीशे के आर पार बाहर देखना , सैम हैरिस द्वारा
हर किसी को खिड़की के शीशे से बाहर देखने और अचानक अपने ही प्रतिबिंब को शीशे से वापस घूरते हुए देखने का अनुभव हुआ है। उस समय, वह शीशे को खिड़की के रूप में, बाहर की दुनिया को देखने के लिए उपयोग कर सकता है या उस शीशे को दर्पण के रूप में उपयोग कर सकता है, लेकिन वह दोनों एक ही समय में नहीं कर सकता।
कभी-कभी शीशे में आपका प्रतिबिंब बहुत सूक्ष्म होता है, और आप आसानी से दस मिनट तक वहाँ खड़े रह सकते हैं, बाहर देखते हुए , अपने चेहरे की छवि के मध्य से बाहर घूरते हुए, बिना अपने चहेरे को देखे।
इस समानता के उद्देश्य को समझने के लिए, कल्पना करें कि ध्यान करने का लक्ष्य प्रत्येक क्षण में अपने स्वयं के प्रतिबिंब को स्पष्ट रूप से देखना है। अधिकांश आध्यात्मिक परंपराएँ यह नहीं समझती हैं कि यह सीधे तरीके एवं सरलता से किया जा सकता है, और वे अपने अभ्यास के मार्गों को इस तरह से व्यक्त करते हैं कि यदि आप खिड़की के शीशे के पार की हर चीज़ पर अधिक ध्यान दें - पेड़, आकाश, यातायात तो अंत में आपको आपका चेहरा दिखाई देगा। खिड़की से बाहर देखना यकीनन अपनी आँखें बंद करने या कमरे से पूरी तरह बाहर निकलने से बेहतर है - कम से कम आप सही दिशा में देख रहे हैं - लेकिन यह अभ्यास एक बुनियादी गलतफहमी पर आधारित है। आपको एहसास नहीं होता कि आप उसी चीज़ के मध्य से बाहर देख रहे हैं, जिसे आप हर क्षण में खोजने की कोशिश कर रहे हैं। बेहतर और अधिक गहराई से जानकारी मिलने पर, आप बस खिड़की तक जा सकते हैं और पहली ही पल में अपना चेहरा उस शीशे में देख सकते हैं।
यही बात अपने “स्वयं” के भ्रामक ज्ञान के लिए भी सच है। चेतना पहले से ही उस भावना से मुक्त है जिसे हम "मैं" कहते हैं। हालाँकि, इसे महसूस करने के लिए व्यक्ति को अपना ध्यान केंद्रित करने का स्तर बदलना चाहिए। कुछ प्रकार के अभ्यास जागरूकता की इस यात्रा को आसान बना सकते हैं, लेकिन कोई ऐसा कदम दर कदम दिशा सूचक मार्ग नहीं है जो उस दशा तक ले जाए।
कई लंबे समय से ध्यान करने वाले लोग इस बात से पूरी तरह अनजान हैं कि ध्यान के ये दो स्तर मौजूद हैं, और वे अपना जीवन जैसे खिड़की से बाहर देखते हुए बिता देते हैं| मैं भी उनमें से एक था। मैं एक बार में कुछ हफ़्ते या महीने एकांतवास में रहता था, सांस और अन्य इंद्रिय वस्तुओं के प्रति सचेत रहता था, यह सोचकर कि अगर मैं अनुभव के कच्चे डेटा के करीब पहुँच जाऊँ, तो एक सफलता खुद ही मिल जाएगी। कभी-कभी, एक सफलता मिलती भी थी: उदाहरण के लिए, देखने के एक पल में, शुद्ध दृष्टि होती थी, और चेतना क्षण भर के लिए ऐसी किसी भी भावना से मुक्त हो जाती थी जिससे "स्व" की धारणा जोड़ी जा सकती हो । लेकिन फिर अनुभव फीका पड़ जाता था, और मैं अपनी इच्छा से वहाँ वापस नहीं जा सकता था। अब कुछ और बचता नहीं था , सिवाय इसके कि चेतना की विषय-वस्तु पर द्वैतवादी ध्यान की ओर लौटना और मानना कि आत्म-उत्कर्ष अभी बहुत दूर है।
हालाँकि , अद्वैत की दृष्टि से, साधारण चेतना – वह जागृति जो मैं और आप अभी अपनी बातों से अनुभव कर रहे हैं, पहले से ही हमारे स्वयं से मुक्त है| और यह साधारण चेतना सीधे से गिनाई जा सकती है और बार बार पहचानी जा सकती है , हमारे अपने अभ्यास के इकलौते रूप में| अतः धीरे क्रम वाले दृष्टिकोण , परिभाषा के तौर पर भी , बहकाने वाले है | फिर भी सभी यहीं से शुरुआत करते हैं |
वस्तुतः , यह अद्वैत का ज्ञान भी बहकाने वाला हो सकता है, क्योंकि जब हम चेतना के आतंरिक स्वार्थ रहित्तता को पहचान भी लेते हैं, फिर भी हमें उस पहचाने हुए ज्ञान का अभ्यास करना होता है | अतः , ध्यान का भी अंततः एक संकेत है , पर यह लक्ष्य-आधारित नहीं है | वास्तविक ध्यान के प्रत्येक क्षण में , अपने स्वयं से आगे बढ़ा जा चूका होता है |
मनन के लिए बीज प्रश्न: आप इस धारणा से कैसा नाता रखते हैं कि हमें यह पता ही नहीं चलता है कि हर क्षण हम जिस चीज़ को खोजने का प्रयास कर रहे होते हैं , हम उसी के मध्य से उसके पार देख रहे होते हैं ? क्या आप उस समय की एक निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आपको यह जागरूकता आई कि आपकी साधारण चेतना, पहले से ही आपके अपने स्वयं से मुक्त है ? आपको अपनी चेतना की आतंरिक स्वार्थ रहित्तता की पहचान के अभ्यास में किस चीज़ से मदद मिलती है ?