ध्यान का लचीला संतुलन, द्वारा मेनका संघवी
मैंने यह देखने के लिए, एक बिना तैयारी के मंच से बोलना सीखाने वाली (improv) क्लास का सहारा लिया, कि क्या इससे अंततः मेरी मंच की घबराहट को शांत करने में मदद मिलेगी। ऐसा नहीं हुआ, लेकिन इससे मैने कुछ आश्चर्यजनक सीखा।
यदि कोई अभिनेता दर्शकों को यह दिखाना चाहता है कि वह किसी से प्रेम करता है, तो वह उस व्यक्ति को देखने में बहुत समय व्यतीत करके ऐसा कर सकता है। अपनी दृष्टि को बार-बार अपने प्रिय पात्र पर लौटाना, नज़र डालना, उस पर निगाह रखना, उसके विवरणों पर गौर करना। दर्शकों में बैठे हम लोगों को यह बहुत हद तक प्रेम जैसा लगता है। हम देखते हैं कि अभिनेता का ध्यान किस ओर जा रहा है, और हम सहज रूप से उनकी फिक्र को महसूस कर लेते हैं। एक बच्चा भी इसे महसूस कर सकता है। इस वास्तविकता की सादगी वाकई दिल को छू गई। हम जिस चीज को देखते हैं, उसी की हमें परवाह होती है!
ध्यान देने के लिए एक महान रूपक है "ध्यान का लचीला संतुलन ।" ("gymnastics of the attention.") यह पुस्तक सिमोन वेइल की है, जो ले पुई में गर्ल्स स्कूल में विज्ञान दर्शन पढ़ाती थीं। उन्होंने इस रुपक का प्रयोग शिक्षण को ध्यान के प्रशिक्षण के रूप में बताने के लिए किया। और रूपक मायने रखते हैं। और यह रूपक इस बात पर जोर देता है कि हम जिस पर भी ध्यान करते हैं उसमें गति, अभ्यास और विकल्प की भूमिका होती है। निश्चित रूप से, हम गिर सकते हैं (और देर रात तक नकारात्मक खबरें देखते रह सकते हैं), लेकिन हम वापस उठ भी सकते हैं और एक और प्रयास कर सकते हैं। समय के साथ, हम जिस चीज को देखने का अभ्यास करते हैं, उसी की हमें हमारी परवाह होती है।
मैंने अपने करियर की शुरुआत बेघर लोग और जलवायु परिवर्तन जैसी सामाजिक चुनौतियों पर काम करके की थी। पंद्रह साल बाद, मैंने अपना ध्यान माइंडफुलनेस के आंतरिक पहलू पर केंद्रित कर लिया, इससे मेरे कई दोस्त और सहकर्मी थोड़े चिंतित हो गए। उन्हें लगा कि मैं बहुत ज़्यादा योगा रिट्रीट में जाने लग गई हूँ और मैंने कठिन चीज़ों को छोड़ दिया है! जबकि लेकिन मेरे लिए, यह इससे बिलकुल उल्टा था।जब हम एक-दूसरे पर ध्यान देना बंद कर देते हैं, और इस पर भी कि हम सभी कितने आपस में कितने जुड़े हुए हैं, तो हम अकेले, अलग-थलग, ध्रुवीकृत (केवल अपनी ही मान्यता को सही मानना) और यहाँ तक कि शोषक महसूस करने लगते हैं।
तो सवाल यह है: क्या ध्यान देने योग्य है? हमारे पास इंटरनेट पर अनगिनत पेज और तुरंत खोज कर के देने वाले सर्च इंजिन के अंतहीन विकल्प हैं। लेकिन करीब से जाँच करने पर, हम पाते हैं कि एल्गोरिदम ( समस्या- समाधान की प्रणाली) जो विकल्प के रूप में सिर्फ़ मोनोकल्चर (एकतरफ़ा कट्टर सोच वाला ग्रुप या समाज ) ही बना रहे हैं। यह एक शानदार दावत की तरह लग सकता है, लेकिन यह ज्यादातर बस कम दाल वाला पानी है। जान बुझ कर हुए कुपोषित, हम आसानी से खुद से, एक-दूसरे से और प्राकृतिक दुनिया से अलग महसूस करना शुरू कर सकते हैं।
मेरे मश्तिष्क में , तर्कशास्त्र का एक सूत्र पिरोया हुआ है जो थोड़ी देर रुकना > उत्सुकता, > चुनाव करना ,> ध्यान देना >, सम्बंधित होना,> परवाह करने, के इर्द गिर्द घूमता है , पर ज्यादा बार , ये सारे शब्द इमानदारी /गंभीरता के गहरे दलदल में सिर्फ परतें बना रहे होते हैं|
आप ,अलग अलग समय में, जब भी आप किसी चीज़ पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, थोड़ी देर विराम देकर अपने आप से ये प्रश्न पूछें , “ क्या ये मेरे द्वारा चुना गया है “? उत्सुकता से जाँचिये कि जो आप देख रहे हैं, वो आपकी आदतों या किसी बाहरी प्रभाव से प्रेरित है अथवा उसके विपरीत यह प्रेरित है, आपकी अपनी अंदरूनी साधना से , आपके अपने ध्यान के लचीले संतुलन ( gymnastics) से |
मनन के लिए बीज प्रश्न : आप इस धारणा से कैसा सम्बन्ध रखते हैं कि हम उन्हीं चीज़ों को देखने का व्यवहार (अभ्यास) करते हैं जिनकी हम परवाह करते है ? क्या आप अपने जीवन की उस समय की एक निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आप वास्तविक तौर पर उत्सुक हुए थे यह देखने के लिए कि जो आप देख रहे हैं उसमे से कितना आपकी आदतों या बाहरी प्रभाव से प्रेरित है और कितना आपकी अंदरूनी साधना से प्रेरित है ? आपको अपने ध्यान देने के चुनावों के बारे में, थोडा विराम देकर उत्सुकता से देखने में, किस चीज़ से मदद मिलती है ?