“ध्यान पूर्वक सुनना एक महान कला है”
-जे. कृष्णमूर्ति के द्वारा
जान लीजिए, सुनना एक महान कला है। यह उन महान कलाओं में से एक है जिसे हमने विकसित नहीं किया है: दूसरों को पूरी तरह से सुनना। जब आप दूसरों को पूरी तरह से सुनते हैं, जैसा कि मुझे उम्मीद है कि आप अभी कर रहे हैं, तो इससे आप खुद को भी सुन रहे हैं, अपनी समस्याओं को सुन रहे हैं, अपनी अनिश्चितताओं को, अपने दुख, भ्रम, सुरक्षित रहने की इच्छा को, मन की क्रमिक अधोगति ( घटाव, गिरावट) को, जो अधिक से अधिक यांत्रिक होता जा रहा है। हम एक दूसरे के साथ बात कर रहे हैं कि मनुष्य क्या है, जो कि आप ही हैं। तो आप मनोवैज्ञानिक रूप से संसार हैं और संसार आप है। आपके बाल काले हो सकते हैं, कुछ लोग गेहुँए चेहरे वाले हो सकते हैं, दूसरे मनुष्य लंबे, गोरे और तिरछी आँख वाले हो सकते हैं, लेकिन वे जहाँ भी रहते हैं, जिस भी जलवायु में, जिस भी परिस्थिति में, समृद्ध हों या न हों, हर इंसान, आपकी तरह, इस सारी उथल-पुथल, जीवन के शोर से गुजरता है, बिना किसी सुंदरता के, कभी घास में वैभव या फूल में महिमा नहीं देख पाता। तो आप और मैं और दूसरे लोग संसार हैं, क्योंकि आप पीड़ित हैं, आपका पड़ोसी पीड़ित है, चाहे वह पड़ोसी दस हज़ार मील दूर क्यों न हो, वे आपके जैसे ही हैं। आपकी संस्कृति अलग हो सकती है, आपकी भाषा अलग हो सकती है, लेकिन मूल रूप से, आंतरिक रूप से, गहराई से, आप दूसरों जैसे ही हैं। और यह एक हक़ीक़त है। यह कोई सिद्धांत नहीं है, यह ऐसा कुछ नहीं है जिस पर आपको विश्वास करना है। यह एक तथ्य है। और इसलिए आप संसार हैं और संसार आप हैं। मुझे उम्मीद है कि आप इसे सुन रहे हैं। जैसा कि मैंने कहा, हमने सुनने की कला खो दी है। इस तरह का कथन सुनना कि संसार आप हैं और आप संसार हैं, शायद आपने पहले कभी नहीं सुना हो, और इसलिए यह बहुत अजीब, अतार्किक या अवास्तविक लग सकता है। इसलिए आप आंशिक रूप से सुनते हैं और चाहते हैं कि मैं अन्य चीजों के बारे में और बात करूँ; इसलिए आप वास्तव में कभी भी किसी चीज़ की सच्चाई नहीं सुनते। अगर मैं आपसे अनुरोध करूँ, तो कृपया, कृपया केवल वक्ता को ही न सुनें, बल्कि खुद को भी सुनें, अपने दिमाग में, अपने दिल में, अपनी प्रतिक्रियाओं में क्या हो रहा है , इत्यादि को सुनें। वह सब सुनें। पक्षियों की आवाज़ सुनें, उस कार की आवाज़ सुनें, ताकि हम संवेदनशील, जीवंत और सक्रिय बन सकें। कृपया कर के इसलिए आप सुनें, तो हम आगे बढ़ सकते हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार, मानवता कई मिलियन वर्षों से बंदरों से विकसित हुई है। हमारा मस्तिष्क कई हज़ारों वर्ष के समय का परिणाम है। वह मस्तिष्क, वह मानव मन, अब भय, चिंता, राष्ट्रीय गौरव, भाषाई सीमाओं आदि से इतना प्रभावित है। तो फिर सवाल यह है कि दुनिया में एक अलग समाज लाने के लिए, हमको एक इंसान के रूप में जो बाकी मानव जाति है, उनको मौलिक रूप से बदलना होगा। यह असली मुद्दा है, युद्धों को कैसे रोका जाए यह नहीं। यह भी एक मुद्दा है कि संसार में शांति कैसे हो, यह गौण है, ये सब एक उदाहरण के रूप में गौण मुद्दे हैं। मूल मुद्दा यह है - क्या यह संभव है कि मानव मन, जो आपका मन, आपका हृदय, आपकी स्थिति है, पूरी तरह से, मौलिक रूप से, गहराई से बदल जाए? अन्यथा हम अपने राष्ट्रीय गौरव के माध्यम से, अपनी भाषाई सीमाओं के माध्यम से, अपने राष्ट्रवाद के माध्यम से एक-दूसरे को नष्ट करने जा रहे हैं, जिसे राजनेता अपने फायदे के लिए बनाए रखते हैं और इसी तरह आगे बढ़ते रहते हैं।
तो मुझे आशा है मैंने अपनी बात काफी स्पष्ट तरीक़े से बता दी है। तो फिर, क्या आपके लिए ये मुमकिन है,आप जो, मनोवैज्ञानिक रूप से पूरी बाकी कि मानवता के प्रतीक हैं : आप जो अंदरूनी तौर पर, इस संसार के सभी मानवों की तरह ही हो, क्या आपकी अवस्था (हालात,परिस्थिति) में बदलाव आना मुमकिन है ?
मनन के लिए मूल प्रश्न: किसी बात के सत्य को पूरी तरह ध्यान पूर्वक सूनना आपके लिए क्या मायने रखता है ? क्या आप किसी ऐसे समय कि निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आपको इस बात का गहराई से एहसास हुआ हो कि आप ही संसार हैं, और ये संसार आप हैं? कोई ऐसा मुद्दा, जिसे आपने समझा एवं महसूस किया हो, उसके प्रत्युत्तर (response ) में, मूल रूप से बदलाव लाने में, आपको किस चीज़ से मदद मिलती है ?