Is There A Real World Out There?

Author
Anil Seth
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क्या यहाँ कोई वास्तविक दुनिया है?
-अनिल सेठ के द्वारा



यहाँ धारणा का एक सामान्य ज्ञान का नजरिया है। आइए इसे "चीज़ें कैसी दिखती हैं" वाला नज़रिया कहें।

यहाँ एक मन-स्वतंत्र वास्तविकता है, जो वस्तुओं और लोगों और स्थानों से भरी हुई है जिनमें वास्तव में रंग, आकार, बनावट इत्यादि जैसे गुण हैं। हमारी इंद्रियां इस दुनिया में पारदर्शी खिड़कियों के रूप में कार्य करती हैं, इन वस्तुओं और उनकी विशेषताओं का पता लगाती हैं और इस जानकारी को मस्तिष्क तक पहुंचाती हैं, जहां जटिल न्यूरोनल प्रक्रियाएं धारणा बनाने के लिए इसे पढ़ती हैं। बाहरी दुनिया में एक कॉफ़ी कप से मस्तिष्क के भीतर एक कॉफ़ी कप की धारणा उत्पन्न होती है। और ये देखें कि कौन या किस बात से धारणा उस्पन्न हो रही है - तो यह बात उठती है कि ठीक है, वह "स्वयं" है, है ना, जो "आंखों के पीछे देखता हुआ, देखने वाला मैं" है न, कोई कह सकता है | या वह जो संवेदी डेटा की लहर पर लहर का प्राप्तकर्ता, जो अपने perceptual readouts का उपयोग करके व्यवहार का मार्गदर्शन करता है, और यह तय करता है कि आगे क्या करना है, हो सकता है | । वहाँ पर एक कप कॉफ़ी है. मुझे इसका एहसास होता है और मैं इसे उठा लेता हूं। मैं समझता हूं, मैं सोचता हूं, और फिर मैं कार्य करता हूं।

यह एक आकर्षक दृश्य है। दशकों, शायद सदियों से स्थापित सोच के पैटर्न ने हमें इस विचार के आदी बना दिया है कि मस्तिष्क खोपड़ी के अंदर बैठा एक प्रकार का कंप्यूटर है, जो स्वयं के लाभ के लिए बाहरी दुनिया की आंतरिक तस्वीर बनाने के लिए संवेदी जानकारी को संसाधित करता है। यह चित्र इतना परिचित है कि किसी भी अन्य उचित विकल्प की कल्पना करना मुश्किल हो सकता है।

लुडविग विट्गेन्स्टाइन: "लोग ऐसा क्यों कहते हैं कि यह सोचना स्वाभाविक था कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है, बजाय इसके कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है?"

एलिज़ाबेथ एंस्कॉम्बे: "मुझे लगता है, क्योंकि ऐसा लगता था कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है।"

लुडविग विट्गेन्स्टाइन: "अच्छा, अगर ऐसा लगता कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तो यह कैसा दिखता ?"

प्रसिद्ध ऑस्ट्रिया निवासी वित्गेन्स्तिईन एवं उसके साथी दार्शनिक ( एवं जीवनी लेखक) एलिज़ाबेथ एन्स्कोम्बे के बीच दिलचस्प संवाद में वित्गेन्स्टिन, कोपेर्निकन क्रांति को इस्तेमाल करते हैं अपने एक विचार को दर्शाने के लिए, कि कैसे जो चीज़ें दिखती हैं जरूरी नहीं है कि वैसी ही हों| यद्यपि ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगा रहा होता है , पर वस्तुतः पृथ्वी ही अपनी अक्ष रेखा पर घूम रही होती है और उसी के कारण हमें रात और दिन नज़र आते हैं | और साथ ही वो पृथ्वी नहीं , बल्कि सूर्य ही है जो सौर मंडल के मध्य में बैठा है | आपको ऐसा लग सकता है कि यह कुछ नया नहीं है , और आप सही भी होंगे। पर वित्तिन्गेस्तिन हमें किसी गहरी सोच में पहुँचाना चाहते थे।जो उनका एलिज़ाबेथ अन्स्कोम्बे को वास्तविक सन्देश था वो यह था कि चीज़ों की वास्तविक एवं बहुत अच्छी समझ के बावजूद भी , कई स्तर पर , चीज़ें वैसी ही नज़र आयेंगीं जैसी हर दम नज़र आती रही हैं। सूर्य पूरब में उदित होता है और पश्चिम में अस्त होता है ,हमेशा की तरह|

जैसा सौर मंडल के साथ है वैसा ही हमारी अनुभूति एवं अनुभव के साथ है। मैं आँखें खोलता हूँ और ऐसा प्रतीत होता है मानो यहाँ एक वास्तविक दुनिया है | आज मैं अपने घर Brighton में हूँ | यहाँ सायप्रस के वृक्ष नहीं हैं जैसे कि सांता क्रूज़ में होते हैं| सिर्फ कुछ साधारण चीज़ें मेरे कार्य करने वाले टेबल पे बिखरी पड़ी हैं, कोने में एक लाल रंग कि कुर्सी रखी है, और मेरी खिड़की के बाहर कुछ पौधों के गमले रखे हैं| ऐसा प्रतीत होता है ये सारी वस्तूओं के तयशुदा रंग एवं आकर हैं, और जो इनमे से हमारे करीब होती हैं उनमे खुशबू एवं संरचना भी है। पर ये चीज़ें ऐसी प्रतीत ही होती हैं।

हालाँकि ऐसा लग सकता है कि मेरी इंद्रियाँ मन-स्वतंत्र वास्तविकता पर पारदर्शी खिड़कियाँ प्रदान करती हैं, और यह धारणा संवेदी डेटा को "पढ़ने" की एक प्रक्रिया है, लेकिन वास्तव में जो हो रहा है वह - मेरा मानना ​​है - बिल्कुल अलग है। धारणाएँ नीचे से ऊपर या बाहर से अंदर नहीं आती हैं, वे मुख्य रूप से ऊपर से नीचे या अंदर से बाहर आती हैं। हम जो अनुभव करते हैं वह संवेदी संकेतों के कारणों के बारे में मस्तिष्क की भविष्यवाणियों, या "सर्वोत्तम अनुमानों" से निर्मित होता है। कोपरनिकन क्रांति की तरह, धारणा का यह ऊपर से नीचे का दृष्टिकोण मौजूदा साक्ष्य के बहुत से पहलुओं के अनुरूप बना हुआ है, जो चीजों के दिखने के कई पहलुओं को अपरिवर्तित छोड़ देता है, जबकि साथ ही साथ सब कुछ बदल देता है।


चिंतन के लिए बीज प्रश्न:
- आप इस धारणा से कैसे संबंधित हैं कि हम वही चीज़ देख रहे हैं जो हम हमेशा देखते हैं, हमारे अंतर्निहित मॉडल में एक बड़े बदलाव के बावजूद भी ?
- क्या आप एक व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं जब आपको एहसास हुआ कि सामान्य दिखने वाली बाहरी वास्तविकता के प्रति ,आपकी दृष्टि एवं निगाहें अलग हैं?
- आपको वास्तविकता के अपने मॉडल में गहराई में जाने में क्या मदद करता है जिससे कि वस्तुएँ जैसी दिखाई दे रही हैं, आप उससे भी आगे जा सकें?
 

Anil Seth is professor of cognitive and computational neuroscience at the University of Sussex. Excerpt above from his book, Being You.


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