“जौहरी की नज़र”
सुलेका जौद के द्वारा
मेरे निदान के बारे में, उन्होंने पूछा था, "अगर तुम सब कुछ बदल सकती, तो तुम क्या करती ?"
मुझे जो जवाब मिला वह यह था: "इतनी ज़्यादा क्रूरता और सुंदरता के आपसी उलझाव ने मेरे जीवन को एक अजीब, बेमेल दृश्य बना दिया है। इसने मुझे एक ऐसी जागरूकता दी है जो मेरी दृष्टि के किनारों पर छाई रहती है - यह एक पल में गुम भी हो सकती है - लेकिन इसने मुझे जौहरी की नज़र भी दी है। अगर मैं अपनी बीमारी के बारे में सोच रही हूँ - मेरे आस-पास के लोगों पर इसके प्रभाव से अलग - तो जवाब है: नहीं, अगर मैं कर सकती तो भी मैं अपने निदान को उलट नहीं करती। मैंने इसे पा कर जो कुछ भी सहा है, उसे नहीं बदलूँगी।"
मेरी दोस्त ने पढ़ना समाप्त करने के बाद रुककर कहा, "क्या तुम अब भी यही कहना चाहती हो? क्या तुम इसे नहीं बदलोगी ?"
मैं यह संशय/दुविधा समझ सकती हूँ ? मेरी बीमारी होने के एक महीने बाद और यहाँ तक कि एक वर्ष बाद भी, मुझे इस बात का विश्वास नहीं होता | वास्तव में , अगर आपने यह कहा होता कि एक दिन मैं ये कहूँगी कि “ मैं अपने बीमार होने को बदलना नहीं चाहूँगी “ , तो शायद मुझे आपके मूंह पे घूँसा मारने कि इच्छा होती।जब आप किसी भयानक एवं क्रूर सत्य की गर्त में होते हो , तो उसका बदलना, आपकी सबसे बड़ी इच्छा होती है | और शायद उस वक़्त, मैं सिर्फ यही चाहती थी कि मैं एक आम , स्वस्थ, २२ वर्ष की नवयुवती रह सकूं पर वास्तविकता को अपना लेने में एक बहुत बड़ी ताकत है। बजाय इसके कि हम अपने हालात से लड़ते रहें, बजाय इसके कि हम शोक एवं क्रोध के कीचड में उलट पुलट होते रहें, हम उस घटना को एक निमंत्रण की तरह देखना शुरू कर सकते हैं। उस घटना की पूछताछ कर सकते हैं, और देख सकते हैं नयी एवं अनपेक्षित संभावनाओं को उभरते हुए |
और ईमानदारी से कहूँ तो मेरे लिए जो अप्रत्याशित ( आकस्मिक,अचानक) चीज़ें सामने आईं, वे अनगिनत और अमूल्य थीं - मैंने जो सीखा और मेरा विकास हुआ, उससे लेकर उस सबसे कठिन दौर से जो प्यार मिला। अपने निदान से पहले, मैं हमेशा भविष्य के बारे में सोचती रहती थी और योजना बनाती रहती थी कि मैं कैसे वहाँ पहुँचूँ जहाँ मैं जाना चाहती हूँ। एक योजना बनाने और जितना हो सके उतनी बहादुरी और निर्भयता से उस पर आगे बढ़ने में मूल्य है। लेकिन यह स्वीकार करना भी महत्वपूर्ण है कि जीवन अक्सर योजना के अनुसार नहीं चलता। मेरे निदान ने मुझे रुकने, वर्तमान में रहने, वर्तमान में खुद से मिलने के लिए मजबूर किया, बजाय किसी ऐसे आकांक्षी संस्कार के जिसके पीछे मैं लगातार भागती रहती थी। इसने मुझे यह पता लगाने के लिए मजबूर किया कि वास्तव में मुझे किस चीज़ ने पोषित किया, जो निश्चित रूप से पहिये का पुनर्निर्माण नहीं था, बल्कि उन चीज़ों की ओर लौटना था जिन्होंने हमेशा मुझे पोषित किया था - जैसे प्रियजनों के साथ समय बिताना, जैसे लिखना।
यह मेरी बीमारी नहीं होती, तो मेरी इतनी गहरी बातचीत नहीं होती जो केवल तभी हो सकती है जब सारी चालाकी दूर हो जाती है, जब आप अपने सबसे शांत, असुरक्षित व्यक्तित्व में होते हैं। मैं हर दिन हमारे आस पास होने वाली छोटी-छोटी खुशियों का आनंद लेने के बजाय, कुछ मायावी, महाकाव्य, पर्वत-शीर्ष अनुभवों का पीछा करते हुए आगे बढ़ रही होती। बीमारी ने मुझे नम्र बना दिया और जमीन से जोड़ दिया। इसने मुझे मेरे सभी सबसे महत्वपूर्ण सबक सिखाए - स्वीकृति के बारे में, उपस्थिति के बारे में, प्यार के बारे में - जिन्हें मैं कभी भी अन-सिखा करना नहीं चाहूंगी।
और फिर भी, वह प्रक्रिया तकलीफ़दायक हो सकती है, और यह जारी रहती है - जिस तरह से एक स्थिति आपको भटकाती है, कैसे यह आपको अलग-अलग, कभी-कभी असुविधाजनक दृष्टिकोणों से मजबूर करती है - लेकिन यह आपको दुनिया को इस तरह से देखने की अनुमति भी देती है जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।
प्रतिभाव के लिए बीज प्रश्न: आप जौहरी की नज़र विकसित करने की धारणा से कैसे संबंधित हैं? क्या आप उस समय की कोई निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आप सांसारिक अनुभव की चट्टान में रत्न देख पाए थे? दुःख और क्रोध में डूबने के बजाय आपको अपनी परिस्थिति को स्वीकार करने में किससे मदद मिलती है?