दैविक भाषा बनाम अविद्या यानि “सिर्फ जीवित रहने के लिए आवश्यक भाषा द्वारा व्यास हॉस्टन
अविद्या है अहम् की ऐसी परिभाषा करना जो अहम् ( आत्मा) से अलग है : अहम् को ऐसी ख़ुशी में परिभाषित करना जो वास्तव में दुःख है : अहम् को ऐसी पवित्रता से परिभाषित करना जो वास्तव में अपवित्रता है: एवं अहम् को नश्वरता से परिभाषित करना जो वास्तव में अनश्वर है|
अविद्या, सिर्फ जीवित रहने के लिए आवश्यक भाषा के भाव को सटीक तरीके से परिभाषित करती है | “ सिर्फ जीवित रहने के लिए आवश्यक “ भाषा , अविद्या में डूबी हुई है | और जितने समय तक “ मैं कौन हूँ” , इस प्रकार की भाषा से परिभाषित है तब तक मैं एक अनंत भ्रष्ट जंजाल का शिकार बना रहता हूँ |
सवाल यह है कि हम ऐसी भाषा क्यों चुनेंगे जो हमें निरंतर आत्म-निर्णय में रखती है। सही तो यह है कि हमने कभी भाषा नहीं चुनी। यह हमेशा से रही है, और बच्चों के रूप में, हमें कोई अन्य विकल्प नहीं दिया गया था। जब तक हम सचेत रूप से अंदरूनी भाषा के उपयोग करने के तरीके को नया स्वरूप नहीं देते, हम अतीत के प्रभाव में रहते हैं, अतीत की ही उस भाषा द्वारा अतीत के पैटर्न को बार-बार दोहराने के लिए अनुकूलित होते हैं।
अकेली एक सबसे महत्वपूर्ण विभिन्नता जो दैविक भाषा एवं अविद्या यानि जीवित रहने के लिए आवश्यक भाषा के बीच है वो है उसकी भाषा में “मैं “ शब्द की परिभाषा , अनुकूलन (orientation) एवं उसका इस्तेमाल | “ मैं “ और उसके बराबरी का शब्द, उस भाषा का उद्गम स्थल है| “मैं “ के बिना न कोई आप हो, न कोई वो पुरुष अथवा स्त्री है या न कोई वह है | “मैं “ शब्द का विकास (evolution) , एक जटिल भाषा में , मानव रचना की ही प्रक्रिया है | दैविक भाषा के विकास क्रम में , जो प्रक्रिया है वो जागरूक है: जो भाषा है वो बिलकुल मूल स्त्रोत से है , वो एक उत्पत्ति है , और उस “ मैं” का ही एक उपकरण (instrument) है | अविद्या अथवा सिर्फ जीवित रहने के लिए आवश्यक भाषा में “ मैं “ उन सांकृतिक स्वरूपों का असर है जिसकी बुनियाद इस भाषा ने अनजाने में ही डाल दी है |
संस्कृत में, यहाँ तक कि "मैं" शब्द बनाने वाली ध्वनियों को भी सचेत रूप से चुना जाता है। अहम। "अ" पहली बोली जाने वाली ध्वनि है, साथ ही संस्कृत वर्णमाला की पहली ध्वनि भी है। इसे साँस लेते हुए, मुँह को थोड़ा खोलकर, साँस छोड़ते हुए, न्यूनतम प्रयास की आवश्यकता वाली ध्वनि के साथ खोजा जा सकता है। यह स्वाभाविक रूप से अन्य सभी ध्वनियों के उच्चारण से पहले गले में उत्पन्न होता है। "ह" संस्कृत वर्णमाला का अंतिम अक्षर है। जीभ और होठों की हरकत से बनाए गए सभी व्यवस्थित पैटर्न के बाद वर्णमाला के सभी अन्य अक्षर सही क्रम में उत्पन्न हो जाते हैं, अंतिम ध्वनि "ह" होती है। यह एकमात्र व्यंजन ध्वनि भी है जो केवल साँस की शक्ति से चलती है, और "अ" के बिल्कुल निकट एकमात्र व्यंजन है। अंतिम अक्षर "म" मुँह में उत्पन्न होने वाली सबसे अंतिम ध्वनि है, क्योंकि यह होठों के बंद होने के कारण होती है। संस्कृत में अहम् का अर्थ है आरंभ, जीवन की सांस जो सृष्टि को जन्म देती है, तथा अंत भी। और यह केवल प्रतीकात्मक रूप से ए-ह-म अक्षरों द्वारा व्यक्त नहीं किया जाता है, बल्कि शारीरिक रूप से, मुँह में उनके स्थान के आधार पर व्यक्त किया जाता है।
मनन के लिए बीज प्रश्न: - आप दैविक भाषा एवं अविद्या यानि “जीवित रहने के लिए आवश्यक भाषा’ के बीच के अंतर सेक्या नाता रखते हैं ? क्या आप उस समय का कोई व्यक्तिगत अनुभव साझा कर सकते हैं जब आपने जागरूकता पूर्वक अपनी अंदरूनी भाषा के उपयोग करने के तरीके की पुनर्रचना की थी ? आप जिस प्रकार की भाषा का उपयोग कर रहे हैं उसके बारे में जागृत होने में आपको किससे मदद मिलती है?