Longer Ladders Don't Get You To The Moon

Author
Michael Gordon
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Image of the Weekलंबी सीढ़ियाँ आपको चाँद तक नहीं ले जातीं द्वारा माइकल गॉर्डोन

धूपघड़ी, 3,000 साल से अस्तित्व में आई है , जो सूर्य द्वारा डाली गई छाया के आधार पर समय बताती हैं। लेकिन दिनों की लंबाई में भिन्नता और लैटिट्यूड में अंतर के कारण सटीक परिणाम नहीं मिलते थे | रेखा गणित का उपयोग इन समस्याओं को ठीक करने के लिए केवल आंशिक रूप से सफल था, और निश्चित रूप से रात में धूपघड़ी बेकार थी। छाया की जगह, ग्रेविटी पर आधारित घड़ियों ने इन्ही समस्याओं को ठीक करने का प्रयास किया।

जल घडी , एक संकीर्ण छेद से टपकते पानी - का उपयोग किसी भी मौसम या लैटिट्यूड में किया जा सकता है। लेकिन वे नाजुक थीं एवं आसानी से परिवहन योग्य नहीं थीं, (जो की नौसंचालन के लिए आवश्यक था ), इसलिए उनका उपयोग करना मुश्किल था और सही समय बताने के लिए विधिपूर्वक उत्पादन करना भी मुश्किल था। रेतघडी, ये भी ग्रेविटी पर आधारित है (लेकिन यहाँ पानी के बजाय रेत का उपयोग होता है), जो कुछ समस्याओं का समाधान करती हैं, लेकिन फिर भी उसके नतीजे विशेष रूप से सटीक या उनका मानकी करण उतना आसान नहीं था|

कम से कम इसकी तुलना अगली पीढ़ी की घड़ियों से नहीं की जा सकती, जो स्प्रिंग्स और गियर पर निर्भर थीं।

अभी के समय में छलांग लगा के देखें तो आज की दुनिया में परमाणु घड़ियाँ हैं, जो आश्चर्यजनक रूप से सटीक और विश्वसनीय हैं, जो प्रति सेकंड लगभग 10 करोड़ बार आगे और पीछे जाने वाले इलेक्ट्रॉनों की गिनती करके काम करती हैं।

ध्यान करें कि प्रत्येक प्रगति ना ही अधिक सटीक और उपयोगी है, बल्कि यह अपने उत्तराधिकारियों की तुलना में पूरी तरह से अलग सिद्धांत पर भी आधारित है - पृथ्वी का घूमना; ग्रेविटी; मैकेनिक्स (भौतिक विज्ञान); और परमाणुओं का दोलन। और इसी तरह से टेक्नोलॉजी में, नए सिद्धांतों को लागू करके, बिना क्रमागत परिवर्तन होते हैं|

आप किसी तकनीक में लगातार बदलाव करके बेहतर से बेहतर परिणाम प्राप्त नहीं कर सकते। आख़िरकार सिद्धांत बदलना ही होगा। लंबी से लंबी सीढ़ियाँ आपको चाँद तक नहीं ले जातीं हैं ।

अर्थव्यवस्था, हालाँकि यह विशाल है, स्वयं एक विज्ञानं है। [...] और शायद इसके लिए भी नए सिद्धांतों की आवश्यकता है। विभिन्न सिद्धांत जिनके द्वारा अर्थव्यवस्था इस तरह से संचालित हो सके जिससे यह अधिक लोगों को लाभ पहुंचाए, और इस बात का सम्मान करे कि हम एक प्रकृति का ही हिस्सा हैं, उससे अलग नहीं हैं |

उनका क्या स्वरुप हो सकता है?

“इसमे मेरे लिए क्या है “? अधिकांश आर्थिक सोच का आधार यह ही है। एडम स्मिथ के समय के अर्थशास्त्रियों ने तर्क दिया है कि स्व-हित से कार्य करने से सभी के लिए एक जीवंत अर्थव्यवस्था का निर्माण होगा। चीजों को संतुलन में लाने के लिए शायद हमें यह पूछना चाहिए कि इसमें “हम “ सबके लिए क्या है?

गॉडफादर फ़िल्म में माइकल कोरलियोन ने कहा था, ‘यह व्यक्तिगत नहीं है, यह पूरी तरह से व्यवसायिक है’| यह सिद्धांत बताता है कि परिणामों और नतीजों के आधार पर हिसाब कैसे रखा जा सकता है | शायद बेहतर निर्देश यह रहता कि रिश्तों पर ध्यान केंद्रित किया जाय , और इन रिश्तों को संचालित करने में हमारी खुद की व भूमिका क्या हो सकती है, देखा जाए और वहीँ से परिणाम आने दिया जाय |

शक्तिशाली की ही सर्वत्र विजय ( survival of the fittest) - यह शक्ति के बारे में है, और यह सलाह भी है (स्वयं मजबूत बनें) और धमकी भी है (ताकि आपसे अधिक मजबूत लोगों द्वारा पराजित न हो) । संभावित है कि यह उपरोक्त सिद्धांत ही है जो हमें सबसे अधिक उलझता है। क्योंकि हमेशा कोई न कोई व्यक्ति (या कोई चीज़) होती है जिसके पास अधिक ताकत, अधिक पैसा, अधिक प्रभाव या हमसे अधिक आक्रामक व्यवहार होता है। जो हमें यह यकीन दिलाता है कि हमें - और हमारे द्वारा बनाई गई प्रणालियों को - और अधिक शक्तिशाली बनाने की आवश्यकता है। हमारा निरंतर प्रयास, एक-उन्नति, प्रदर्शन, पुरस्कृत होने की आवश्यकता, आगे बढ़ना, लगातार प्रतिफल का लाभ निकालना – बन जाता है और ये स्वरुप हमारे जीवन में प्रवेश कर जाते हैं और उन प्रणालियों को रेखांकित करने लगते हैं जिन्हें हम बनाते हैं और जिनसे हम जीवन व्यतीत करते हैं।

फिर चाहे हम शक्ति एवं ताकत की कितनी भी ऊंची सीढ़ी चढ़ जाएं, शीर्ष तक पहुँचने पर भी हम कभी सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुंच पाते। हम कोशिश में लगे रहते हैं, जबतक हम यह नहीं पहचान लेते कि सीढ़ी एक दीवार के सहारे टिकी हुई है, जिससे आगे बढ़ने की कोई सम्भावना नहीं है।

जब तक हम एक बुनियादी सिद्धांत नहीं बदलते, जब तक हम अपने इस यकीन से दूर नहीं जाते कि पर्याप्त शक्ति से चीजें बेहतर हो जाएंगी, तब तक कुछ नहीं बदलता ।आइये , हम उस ओर बढ़ें जिसे आध्यात्मिक गुरु प्रेम या करुणा कहते हैं।

क्या यह पागलपन लगता है? (यह मुझे भी कुछ साल पहले लगता था था)। यदि हां, तो यह मनन के लिए अच्छा प्रश्न है | (10वीं शताब्दी के जर्मन दार्शनिक नीत्शे द्वारा कथित एक कहावत है ), "और जो लोग नाचते हुए दिख रहे थे, उन लोगों द्वारा पागल माने जा रहे थे , जो उनका संगीत सुनना सुन नहीं पा रहे थे।"

आइये ,सुनने का प्रयास करते हैं।

मनन के लिए बीज प्रश्न : आप इस धारणा से कैसा नाता रखते हैं कि हमारी अर्थ व्यवस्था की सोच को उभारने के लिए नए सिद्धांत अपनाने की जरूरत है ? क्या आप उस समय की निजी कहानी साझा कर सकते हैं हब आपने नए सिद्धांत खोज निकाले हों , अपने प्रयासों में बिना क्रमागत उछाल लाने के लिए? आपको नए सिद्धांतों को खोजने के लिए , गहराई से सुनने में, किस चीज़ से सहायता मिलती है ?
 

Michael Gordon is a retired professor at University of Michigan, and author of Doing Good With Money (offered freely with an act of kindness!).


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