समाचार सुनते ही प्रार्थना , द्वारा रब्बी येल लेवी
हिब्रू संप्रदाय के महीने तम्मुज़ की सत्रहवी तारीख को तीन हफ्ते का शोक का समय आता है जो आगे जा कर “तिषा बव” में मिलता है | ये वो दिन है जिस दिन से जेरुसलम में मंदिरों की तहस नहस चालू हुई थी, सन ५८६ से ७० ईशा पूर्व में|
प्रथाओं ने बताया की मंदिरों का तहस नहस इसलिए किया गया था क्योंकि सम्प्रदाय में नफरत ही एक दुसरे से बर्ताव का सिद्धान्त बन गई थी | घृणा , तिरस्कार एवं अवहेलना जो आपस के दैनिक व्यवहार में लिप्त थी, उसने दैवीय उपस्थिति को भागने के लिए मजबूर किया और उस से वहां के मंदिर आक्रमण के लिए आघात योग्य हो गए|
ये आने वाला तीन हफ़्तों का समय हमें उस नफरत के बारे में विचार करने को कहता है जिसे हमने हमारे ह्रदय की जड़ों में बसने की जगह दे दी है| उस प्रथा का ज्ञान यह मानता है कि नफरत भी हमें कभी कभी अच्छा महसूस करा सकती है और तब लगता है कि “यह ही “सही है, पर अगर हम उसे अपनी नसों में बसने दें, और उसे हमारे कृत्यों को दिशा देने दें , तो काफी तहस नहस हो जायेगा|
कई वर्ष पूर्व मुझे एक अभ्यास सिखाया गया था “ समाचार सुनते ही प्रार्थना “| मैंने इस अभ्यास को वर्षो से साझा किया है एवं इस पर्व (मौसम) के दौरान मैं इस अभ्यास पर वापस आ जाता हूँ|इस अभ्यास में हम जितनी बार भी एक कुछ ऐसा समाचार सुनते हैं या पढ़ते हैं जिससे हमारा क्रोध जाग जाता है , तब हम अपना ध्यान उन पर ले जाते हैं जिनको इस वारदात से नुक्सान पहुंचा है और उनकी सेहत एवं पूर्ण रोग निवारण के लिए प्रार्थना करने लग जाते हैं|
ऐसा करना हमें हमारे अपने क्रोध, शोक एवं मायूसी को देखने का मौका दिलाता है, और साथ ही साथ हमारा ध्यान रिश्तों और उन मे करुणा की ओर ले जाता है|”समाचार सुनते ही प्रार्थना “हमें मदद कर सकती है उस विध्वंश एवं अफरा तफरी की तरफ दृष्टा रूप से देखने के लिए | साथ ही ये मदद कर सकती है हमारे ह्रदय को कोंमल , हमारी बुद्धि को शांत और हमारे कृत्यों को स्पष्ट रखने के लिए|
इन दिनों , इस देश में एवं पूरे विश्व में, लगातार हो रही हिंसा के कारन, मुझे इस अभ्यास में बने रहने में काफी मशक्कत करनी पड़ रही है|नफरत भी कभी कभी एक स्वागतमई तट का एहसास दिला सकती है|न सिर्फ इस से अच्छा महसूस हो सकता है, नफरत एक ढाल भी बन सकती है , और एक भ्रम पैदा कर सकती है कि जो शोक एवं ह्रदय फटने वाली पीड़ा मैं महसूस कर रहा हूँ उसे मुझे अपनाने की जरूरत नहीं है|
मुझे अभ्यासों की जरूरत है अपने भय और क्रोध को शांत करने के लिए, नफरत की जकड़ को ढीला करने के लिए, और अपने अन्दर उभर रहे अत्याधिकशोक के साथ रहने के लिए| मुझे अभ्यासों की जरूरत है अपने में व्याप्त करुणा , प्रेम, आनंद और संभावनाओं की ओर वापस जाने के लिए|
"समाचार सुनते ही प्रार्थना "ने मुझे दुःख भी दिया और साथ ही मेरे लिए सहायक भी रही है| ये मुझे आपस में जोड़े रखती है, दुःख को भी मेरे अन्दर आने देती है और मुझे प्रेम और सेवा में केन्द्रित कर देती है|
मनन के लिए मूल प्रश्न: आप इस धारणा से कैसा नाता रखते हैं कि जब हम क्रोध एवं भय में आगे बढ़ते हैं तो नफरत ही हमारे बर्ताव का सिद्धांत बन जाती है? क्या आप उस समय कि एक कहानी साझा कर सकते हैं, जब आप करुणा , प्रेम, आनंद और संभावनाओं की ओर वापस बढ़ पाए हों? आपको शोक,क्रोध एवं भय को स्वीकार करने परन्तु उनके वशीभूत नहीं रहने में किस चीज़ से सहायता मिलती है?,