हम केवल वही देख सकते हैं जो हम सोच सकते हैं -माइकल लिप्सन
सौभाग्य से या ऐसे ही , हम जो कुछ भी करते हैं वह हमारी सोच से प्रेरित होता है। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। भले ही मैं कहूँ, "मैं सोचना बंद कर दूँगा और भावनाओं को अपना मार्गदर्शक बनाऊँगा" -- यह भी एक ही विचार है। यात्रा के पहले चरण की तरह, यह अनदेखा गुज़र सकता है और भुला दिया जा सकता है, लेकिन आप जानते हैं कि यह वहाँ रहा होगा। यदि हम अपनी बुनियादी क्षमताओं को बदलने का प्रयास कर रहे हैं, तो हमें जड़ से शुरू करना चाहिए: वह जो हमें खुद को को चुनने और दूसरों को मार्गदर्शन करने में मदद करता है।
हम विचार पर किसी भी निर्भरता को बिना रोमांच के मानकर घृणा कर सकते हैं; हम अपनी सोच को सीमित और सांस्कृतिक रूप से निर्धारित मान सकते हैं; हम इस दुनिया को समझने को और हमारे व्यवहार को निर्देशित करने के अपने कार्य के लिए सोच को, अपर्याप्त मान सकते हैं। हम जो नहीं कर सकते हैं वह है इससे बचने का प्रयास । इनमें से प्रत्येक आलोचना अपने आप में सोच का एक उदाहरण है, और वास्तव में सोच के महासागर में बसती है। जब हम सोच के अधिकार पर सवाल उठाते हैं, तो हम इससे बिल्कुल भी नहीं बच पाते, क्योंकि जिस प्रक्रिया से हम इस पर संदेह कर सकते हैं, वह (फिर से) खुद एक सोच है।
एक दिन एक मरीज मेरे कार्यालय में आया और कुछ मिनटों तक इस समस्या में उलझा रहा। उन्होंने कहा, "मैं पूरी तरह से मानसिक रूप से परेशान हूं।" एक वकील के रूप में, वह अपने व्यावसायिक जीवन के लिए स्पष्ट, आलोचनात्मक समझ पर निर्भर थे, और उन्हें पता था कि उनकी सोचने की क्षमता में ही कुछ गड़बड़ है। उन्होंने कहा, "मैं हमेशा क्रोधित रहता हूं, और मैं जानता हूं कि ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं हमेशा लोगों का मूल्यांकन करता रहता हूं।" मेरा मतलब है, लोग ऐसी बेवकूफ़ी भरी बातें करते रहेते हैं। लेकिन उनकी आलोचना करना मुझे बीमार कर रहा है। मैं चाहता हूं कि मैं अपने विचारों से दूर हो जाऊं और शांति पा सकूं। हम इस सप्ताह फ्लोरिडा से छुट्टियां मनाकर वापस आए हैं, और यह कई मायनों में अच्छा था, लेकिन जब मैं धूप वाले दिन मछली पकड़ रहा होता हूं और सब कुछ ठीक चल रहा होता है - पानी बढ़िया है, नाव बढ़िया है, मछलियां फँस रही हैं - तब भी मेरा दिमाग लगातार दौड़ता रहता है और चिंता करता रहता है। मैं काम पर भी हो सकता हूँ। फिर जब मैं काम पर होता हूँ, तो वहाँ कुछ भी नहीं होता, बस ध्यान भटकता रहता है।
आप जानते हैं, जब मैं कानून की पढ़ाई पूरी करके निकला था तो मैं किसी संक्षिप्त विवरण या पत्र या जो भी हो, उस पर ध्यान केंद्रित कर सकता था और वास्तव में उसमें डूब सकता था। अब मेरा दिमाग या तो आलोचना कर रहा है, चिंता कर रहा है, विचलित है, या इन सब मे थोड़ा थोड़ा अटका है । कसम से यह बेहतर होगा अगर मैं कुछ समय के लिए पूरी तरह से सोचना बंद कर दूँ। पर यहाँ भी मैं खुद की बहुत आलोचना ही कर रहा हूँ! यह बस रुकने वाला नहीं है।" अंततः उसे यह समझ में आ गया कि वह जो चाहता था वह कोई अविचारी बनना नहीं था, बल्कि अधिक एकाग्र और जीवंत विचारी बनना था। बात इतनी भी नहीं थी कि वह अपना दिमाग बंद करना चाहता था। वह चाहता था कि उसका मन स्पष्ट रहे। क्रोध और चिंता में खोने के बजाय, वह अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहता था। उसने महसूस किया कि उस की समझने की शैली कठोर और खंडित हो गई थी, जबकि उसे इसे लचीला और संपूर्ण बनाने की आवश्यकता थी। शायद हमारे शरीर की तरह ही हमारी सोच को भी व्यायाम की ज़रूरत है।
हम अपने शारीरिक स्वास्थ्य के बारे में चिंता करते हैं और इसे बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ खर्च करते हैं, लेकिन क्या हम कभी भी अपनी सोचने की क्षमता में उस तरह के आत्म-सुधार के उत्साह को लागू करते हैं? हमारे शरीर की तरह ही हमारे दिमाग को भी लचीलेपन और ताकत के संयोजन की ज़रूरत होती है, ऐसे गुण जो तब तक वापस नहीं आ सकते जब तक हम कुछ न करें। [...]
अधिकांश समय, जिसे हम सोचना कहते हैं, वह विचलित करने वाली चीज़ों का एक चक्रव्यूह होता है। लेकिन सोचना, चाहे स्पष्ट हो या मैला, एक मानसिक अजमोद (एक मसाल) की तरह नहीं है जो मुख्य व्यंजन को सजाता है, जिसे हमरी वास्तविकता से जोड़ा गया है । यह वही है जो हमारे लिए दुनिया का सार बनाता है। हम सभी इसे सामान्य रूप से जानते हैं, और अधिकांश लोग स्वीकार कर सकते हैं कि वे मानसिक आदतों के एक संकीर्ण (संकट) के क्षेत्र में रहते हैं। लेकिन सोच की भूमिका जितनी हम आम तौर पर महसूस करते हैं, उससे कहीं ज़्यादा प्राथमिक और व्यापक है। जिसे हम सामान्य चेतना में "वास्तविकता" कहते हैं - यहाँ तक कि हमारे आस-पास की दुनिया की चीज़ें भी - वह सिर्फ़ हमारे अपने पिछले विचार हैं।
मैं समझाता हूँ। जब हम कोई कार, या ओक का पेड़, या बादल देखते हैं, तो हम उन्हें उन विचारों के अनुसार देखते हैं जो हम खुद और हमारा पूरा समाज पहले से ही इन चीज़ों के बारे में सोच चुके होते हैं। अन्य संस्कृतियों में, जहाँ दूसरे विचारों का बोलबाला होता है, उन्हें अलग तरह से देखा जाता है। वयस्क उन्हें भाषा के माध्यम से बच्चों को सिखाते हैं। बच्चे इन भाषा द्वारा दी हुई अवधारणाओं को सीखते हैं और उसी के अनुसार दुनिया को देखते हैं। आपके लिए उन अवधारणाओं के अलावा कोई और वास्तविकता नहीं है जो आपने हासिल की हैं या जिन्हें आप अब धारणा के कार्य में हासिल करते हैं।
जिसने कभी भी लिखने के मनोभाव को नहीं समझा , वो लिखने को लिखे हुए कागज़ को सिर्फ एक सफ़ेद कागज़ पर लगे नीले निशान के रूप में ही देख पायेगा | हम जानते हैं की प्राचीन सभ्यताएं इस दुनिया को अलग अलग तरह से देखती हैं| वो एक ऐसी वास्तविकता जीवन गुजारती हैं जो हमसे बिलकुल अलग है , जो अलग प्रकार के विचारों से प्रभावित है, और हम उस तरह के जीने को तिरछे /टेढ़े तरीके से अनुवादित कर के , “उस तरफ “ की दुनिया के विषय में हमारी बनायीं हुई अपनी आदर्श मान्यता में उसे फिट करने में लगे रहते हैं , जिसमे हमारी बुद्धि उसे देख रही है | प्राचीन रोमन सभ्यताओं के विश्लेषण ने दिखाया है कि यूनान के निवासियों ने रंगों को अलग तरीके से समझा और वो रंगों को अलग तरीके से देखते थे|
जब भी हम इस प्रकार की दृष्टि को गंभीरता से देखने की चुनोती को स्वीकार करते हैं , और शायद मानव शास्त्र इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है, तो हम ये जानने लग जाते हैं कि कोई ऐसी दुनिया है ही नहीं जो हमारे दुनिया के विषय के हमारे वर्त्तमान विचारों से बाहर हो, ( अथवा हमारे अतीत के विचारों के बाहर हो) | हमारे देखने , सुनने , स्पर्श करने एवं अन्य के तरीकों यानि उन तरीकों जिनके माध्यम से हम उसे अपनाते हैं जो हमारे लिए वास्तविक है , वो सभी उन धारणाओं में व्याप्त हैं जो हमारी अपनी सभ्यता , भाषा और निजी इतिहास से सम्बंधित हैं | हम वही देख सकते हैं, जिसे हम सोच सकते हैं |
मनन के लिए मूल प्रश्न : आप इस धारणा से कैसे सम्बन्ध रखते हैं कि हम वो ही देख सकते हैं , जिसे हम सोच सकते हैं? क्या आप ऐसे समय की कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने एक ऐसी वास्तविकता का अनुभव किया हो जो आपके विचारों/ धारणाओं से ऊपर थी ? आप इस बात की जागृति होने में किस चीज़ से मदद मिलती है कि आपके विचार ही आपके अनुभवोँ को आकार देते हैं ?