आरंभक मन विरुद्ध अति अनुभवी मन द्वारा क्रिस्टीना फील्डमन
हम अपने जीवन में कितना भार इकट्ठा करते हैं, फिर संभाल के रखते हैं और उसका संग्रह करते रहते हैं| ऐसे हजारों विचार , अनुमान एवं योजनायें जो हमने बनाई हैं हमारे मन पे अंकित होती हैं|हमने अनगिनत संवाद किये होंगे और वो बार बार अपने मन में हम दोहराते हैं|हम एक अनुभव से दुसरे में बढ़ते हैं, एक मुलाक़ात से दूसरी में बढ़ते हैं, और हम उन सबके बारे में सोचते रहते हैं| बहुत सी जानकारियाँ और ज्ञान हमने इकट्ठा किया है, उसे अपने में पचाया है , उसे संग्रहित किया है, और ये सारा हम अपने साथ उठाये घूमते हैं| ये जो विकारों की सामग्री है हमारी कहानी बन जाती है, वो कहानी जो लोगों के बारे में होती है , हमारे अपने बारे में होती है, और इस दुनिया के बारे में होती है| जब हमारे मन एवं ह्रदय में अस्थिरता , अव्यवस्था का लगातार अनुभव होता है तो मानो उसे भूल जाने की आदत वरदान स्वरुप लगती है| फिर भी दुनिया को अपनाने की हमारी अंदरूनी क्षमता, जो जटिलता एवं करुणा , दोनों का ही स्तोत्र है, हमारे साथ हर वक़्त रहती है|
एक आरंभक मन की एक सरल शब्दावली होती है जिसकी नींव प्रश्न पूछने और सीखने की उत्सुक्ता पे टिकी होती है| जेन समुदाय की ध्यान प्रक्रिया, प्रति क्षण एक सरल प्रश्न के पूछते रहने पे टिकी होती है “ ये क्या है” ? जो भी हमारे ह्रदय , मन एवं शरीर में उभर के आता है, उसका स्वागत हमारी एक गहरी तहकीकात से होता है|ये विचार, ये शरीर, ये अनुभव, ये अनुभूति, ये संवाद, इस क्षण मैं कैसा है? ये एक ऐसा प्रश्न है जिसका मकसद है सभी मान्यताओं, सभी छवियों, सभी अनुमानों को ख़त्म कर देना और अच्छी पहचान को ख़त्म कर देना| ये एक ऐसा प्रश्न है जो प्रत्येक क्षण में हमारी सुखमय उपस्थिति ला देता है: एक ऐसा प्रश्न जो ना रुकावटों को देखता है, ना दुश्मनों को ढूंढता है : एक ऐसा प्रश्न जो आदर करता है उस उत्तम ज्ञान की धारा का, जो हमें प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक मुलाक़ात से प्राप्त होती है| ये एक ‘ प्रत्येक क्षण “ का अभ्यास है , जिसमे हमारी ध्यान पूर्वक सुनने की क्षमता , और बिना शर्त उपस्थित रहने की क्षमता को, एक अंदरूनी जाग्रति के मार्ग के रूप में, संजोया जाता है|
एक अति अनुभवी मन में एक अलग शब्दावली चल रही होती है, जिसमे आस्था गहराई से जानने की होती है , स्वतंत्रता में आस्था के बजाये| एक अति अनुभवी मन अपने बीते इतिहास में उलझा होता है, संग्रह किये हुए अनुमानों एवं निर्णयों में उलझा होता है, और पूर्व के अनुभव में उलझा होता है| जो सबसे ज्यादा बार शब्द एक अति अनुभवी के मन में दोहराया जाता है वो है “ फिर से” | कितनी लम्बी कहानी ये शब्द “ फिर से” साथ ले के चलता है| हम देख सकते हैं अपने ह्रदय के द्वारों को बंद होते हुए, जैसे ही हम अपने आप को फूस फुसाते हैं, “ ये विचार, ये अनुभूति, ये दर्द, ये व्यक्ति, फिर से” | हर प्रकार की तुलनाएं, थकावट, द्वेष, या नीरसता में, पूर्व के इतिहास की दखलंदाजी की इतनी शक्ति होती है कि हमारा उस क्षण से बिलकुल सम्बन्ध विच्छेद कर देती है | ये शब्द “ फिर से “ अपने साथ एक आवाज़ ले कर घूमता है जो सब जानती है, टूटे को सही करना जानती है, और सामने से हटाना जानती है, एवं उसके आते ही, हम अलविदा कह देते हैं, रोचकता को, विस्मय को, खुलेपन को, एवं सीखने को| जब भी हमें कोई क्षण गहराई से नहीं छूता , हम आरंभिक मन को अलविदा कह देते हैं| एक पौराणिक गुरु ने कहा है” वहीँ पर वृहद् दिव्य प्राप्ति है, जहाँ वृहद् विस्मय है “|
हमारी जीवन गाथा की जानकारी , ज्ञान एवं रणनीति में से, कितना हमारे काम आता है? हम अपनी जीवन गाथा में कभी दुख , दर्द, भय , अस्वीकृति का अनुभव करते हैं जो ज्यादातर दूसरों के द्वारा दिया होता है और कभी अपने आप द्वारा ही हम पे लादा गया होता है| ये जानकारी कि इस पीड़ा , गम, एवं आतंरिक बदहाली का क्या कारण है, एक भेदभाव वाली ज्ञान क्षमता में बदल जाता है, और हम न चाहते हुए भी, इन स्थितियों की ओर अपने को उजागर कर लेते हैं| हमें अपने जीवन में कई बार कुछ महत्वपूर्ण चुनाव करने पड़ते हैं, ऐसी स्थितियों का चुनाव जो भय ,के बजाय प्रज्ञा पर जड़ित होती हैं|
महात्मा बुद्ध ने इस प्रसंग को समझाने के लिए एक नाव का सहारा लिया है| उनके अनुसार, कल्पना करें, हम एक नदी के किनारे चल रहे हैं और वो किनारा हमें भयानक नज़र आता है और दूसरा किनारा हमें सुरक्षित नज़र आता है | तब हम पेड़ पौधे एवं रस्सी इकट्ठी करके एक नाव का निर्माण कर लेते हैं जो हमें दुसरे किनारे पहुंचा देगी | कल्पना करें, दूसरे किनारे सुरक्षा पूर्वक पहुँच कर हम उस नाव को अपने कन्धों पर उठा के घूमते रहते हैं| उनका प्रश्न है, क्या हम उस नाव का सही उपयोग कर रहे हैं? जो उत्तर सभी देंगे वो है “ नहीं “| ये एक साधारण आदमी भी जानता है कि वो नाव कितना उपयोगी थी, पर प्रज्ञा/ ज्ञान कहता है , दुसरे किनारे पहुँच कर उस नाव को हम वहीँ छोड़ दें , और आगे चलते जाएँ बिना उस नाव के बोझ या भार के |
मनन के लिए मूल प्रश्न: आप अपने आपको उस नाव के प्रसंग और उससे अर्जित ज्ञान से कैसे जोड़ते हैं ? क्या आप अपनी एक निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने अपने प्रारंभिक मन को एक ऐसी स्थिति के लिए अपनाया , जिस स्थिति से आपका पूर्व में कई बार सामना हुआ था? आपको आपने विस्मय वाले स्वरुप में रहने में किस चीज़ से सहायता मिलती है?