कृपा कार्य का माध्यम होना, द्वारा जोअन्ना मेसी
यह एह खोज है जो हम अपनी पर्यावरण सम्बन्धी यात्रा (pilgrimage ) में अपनी तरक्की है के दौरान कर सकते हैं : यह खोज की हमारे माध्यम से क्या होना संभव है|अगर हम वो पत्थर हैं जो नृत्य रत हैं, तो जिसने हमें उन पत्थरों से आगे बढाया वो ही हमें आगे ले जा सकता है, और हमारी जीवन यात्रा को चलाते रहने में हमें थाम सकता है|
जब मैंने एक नर्स को, उसके, बच्चों के अस्पताल के विभाग में, सराहनीय कार्य के लिए एवं सेवा में लम्बे समय तक हिम्मत एवं सेवा भाव से लगे रहने के लिए सराहा, तो उसने मेरी तारीफ को थोडा नजर अंदाज़ कर दिया मानो मेरी तारीफ शायद कुछ दिशा हीन थी|” यह मेरी हिम्मत नहीं है | मुझे ये हिम्मत बच्चों से मिलती है “, उसने कहा उन छोटे बिस्तरों पर लेटे बच्चों की ओर इशारा करते हुए|”जो शक्ति मुझे लगे रहने के लिए चाहिए , वो ये बच्चे मुझे दे देते हैं”|चाहे हम किसी बगीचे की बागवानी कर रहे हों, चाहे किसी सूप रसोईघर में कुछ पका रहे हों, हमें कभी कभी ऐसा महसूस होता है जैसे कोई बड़ी शक्ति, जो हमारी अपनी शक्ति से कई गुना ज्यादा है, हमें सहारा दे रही है, और ऐसा महसूस होता है जैसे हमारे “माध्यम” से कुछ घटित हो रहा है|
यह शायद “दैविक कृपा “ के धार्मिक पहलू के नजदीक है, पर पारंपरिक पश्चिमी सभ्यता में “कृपा “ की समझ से भिन्न है, क्योंकि इसमें इश्वर पे विश्वास या किसी अलौकिक संस्था पे विश्वास की आवश्यकता नहीं है|ऐसा महसूस होता है जैसे हमें , किसी अन्य के लिए, कुछ करने को अधिकृत किया गया है – या शायद एक विस्तृत विश्व के लिए , और ये अधिकार भी उसी कार्य के” माध्यम” से निकल के आता है, या जिनके लिए वो कार्य है, उनके माध्यम से निकल के आता है| यह अद्भुत घटना , पर्यावरणीय परिपेक्ष्य से देखने से सहक्रिया के रूप में समझ में आती है| यह एक अति महत्वपूर्ण बिंदु है, क्योंकि यह शक्ति के बोध एवं धारणा को पुनः सोचने की ओर ले जाता है|
पर्यावरण के परिपेक्ष्य में, सभी खुली व्यवस्थाएं, चाहे वो कोषाएं हो अथवा जीव जंतु, देवदार हो अथवा दलदल , सभी प्रायः स्व- व्यवस्थित होती हैं| उन्हें किसी बाहरी या वरिष्ट संस्था के द्वारा नियंत्रण की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही जैसे हमारा जिगर या फिर सेव के वृक्ष को कोई बताता नहीं है की कैसे काम करना है| अन्य शब्दों में देखें तो, क्रमबद्धता जीवन के अन्दर सम्महित है, ये जीवन प्रणाली का अभिन्न अंग है| ये धारणा पीढ़ीगत सांसारिक दृष्टिकोण के विपरीत है, जो हमारी संस्कृति ने सदियों से अपना रखी थी कि मन हमारे प्रकृति से ऊपर है , एवं क्रमबद्धता एक अन्य रूप से क्रम रहित, भौतिक वस्तुओं पर ऊपर से लादी गई है| हमने सत्ता को भी बर्चस्व के ही समीकृत किया है, जहाँ एक की मर्जी दूसरे के ऊपर चलती है| और ये एक शुन्य जोड़ शुन्य का ही खेल बन जाता है, या सिर्फ हार जीत का खेल रह जाता है, जहाँ सत्ता धारी होने का अर्थ है, औरों की माँगों या उनके प्रभाव को रोकना , और बहुत ही मजबूत मोर्चाबंदी की आवश्यकता होती ,अपनी बढ़त ( दबदबा) बरक़रार रखने के लिए|
जैसे ही हम इस प्रकार की सोच में जाते हैं , हम इस तथ्य को भूल जाते हैं की प्रकृति का काम करने का तरीका यह नहीं है| जीव जन्तुओं की प्रणाली विकसित होती है, असरलता में, लचीलेपन में, एवं बुद्धि विकास में , अपने आपस के आदान प्रदान द्वारा| इस आदान प्रदान को आवश्यकता होती है खुलेपन की, नाजुकपने की , ताकि वो इस प्रक्रिया से शक्ति के आपस में फैलने को बढ़ा सके एवं जरूरी जानकारी आपस में फैला सकें| और इससे नई प्रतिक्रियाएं एवं नई संभावनाएं उभर सकें , जो अभी तक प्रगट नहीं थीं , और इनसे एक नए बदलाव की और बढ़ने की शक्ति बढ़ जाती है| इस परस्पर निर्भर , नूतन सामर्थ्यता को ही हम सहक्रियता ( synergy) का नाम देते हैं| यह एक दैविक कृपा जैसी है, क्योंकि इससे एक शक्ति का विकास होता है, जो हमारी अपनी शक्ति से भी ज्यादा बढ़ के होता, और यह शक्ति मानो एक अलग अस्तित्व वाली होती है |
मनन के लिए मूल प्रश्न : आप इस धारणा से कैसा नाता रखते हैं कि, क्रमबद्धता जीवन में सम्महित है और उसे किसी पीढ़ीगत बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं है ? क्या आप उस समय की निजी कहानी साझा कर सकते हैं, जब आपने आप को सशक्त पाया, उनके माध्यम से काम करने में, जिनके लिए आप यह काम कर रहे थे? आपको सहक्रियता को एक दैविक कृपा के रूप में देखने में किस चीज़ से मदद मिलती है?