जो आपको चाहिए वह मेरे पास है
- शेरोन साल्ज़बर्ग के द्वारा
यरुशलम के पुराने शहर के खंड में, एक अद्भुत खुला बाज़ार है। यह जीवन से भरपूर एक जगह है - बिक्री के लिए यहाँ आये तरह तरह के सामान और उनके बेचने वालों की आवाज़ें, आँखों और कानों को एकदम व्यस्त रखते हैं। एक बार जब मैं इज़राइल में पढ़ा रहा था, तो कुछ दोस्त और मैं वहाँ गए। जब हम एक गली में चल रहे थे, एक व्यापारी ने मुझे पुकारा, "मेरे पास वह है जो तुम्हें चाहिए!" मुझे अपने पूरे शरीर में एक रोमांच महसूस हुआ। "वाह, उसके पास वह है जो मुझे चाहिए।" मैं रुका, मुड़ा और उसकी ओर चलने लगा। फिर मैंने सोचा, "एक मिनट रुको। सबसे पहले, मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है, और दूसरा, उसे कैसे पता चलेगा कि उसके पास वह है जो मुझे चाहिए?"
कई तरह से दुनिया भी हमें हर समय पुकार रही है: "मेरे पास वह है जिसकी आपको आवश्यकता है! मेरे पास वह है जिसकी आपको आवश्यकता है!" जवाब में, हम उन आवाज़ों का आंतरिककरण करते हैं: "मुझे ज़रूरत है। मुझे कुछ चाहिए। मैं घाटे की स्थिति में हूँ, अभाव की स्थिति में हूँ।" यह ऐसा है जैसे हम किसी प्रकार के हास्य-चित्र में बदल जाते हैं, हमारी आंखें हमारे सिर से बाहर निकल आती हैं जैसे की वे स्प्रिंग्स पर हों। "यह कहाँ है? मुझे जिस चीज़ की आवश्यकता है वह कहाँ है?" हमारी भुजाएँ फैलती हैं, बाहर पहुँचती हैं। उंगलियां मुड़ी हुई हैं, किसी भी एक वस्तु को पकड़ने की कोशिश कर रही हैं। हमारा सिर सख्ती से इच्छा-वस्तु की दिशा में स्थिर हो जाता है, ताकि वह हमारी आँखों से ओझल न हो जाए। हमारे शरीर प्रत्याशा में आगे झुकते हैं।
कैसी असहज गड़बड़ी है!
और फिर भी इन आवाजों पर विश्वास करते हुए बार-बार झुकते हैं। यह असहज चाल, यह लगातार बाहर तक पहुँचना और झुकना, शरीर और मन में तनाव के रूप में महसूस होता है। आवाज हमें बताती है, "मेरे पास वह है जो आपको चाहिए।" "आपके पास वह नहीं है जिसकी आपको आवश्यकता है। मेरे पास वह है जो आपको चाहिए।" लेकिन ऐसा क्या है जिसकी हमें वास्तव में आवश्यकता है?
यह सत्य है कि सभी प्राणी सुखी रहना चाहते हैं। हम अपने जीवन में खुश और सुरक्षित महसूस करना चाहते हैं। हम जो हैं, उसकी सीमित समझ से बढ़कर किसी बड़ी चीज़ का हिस्सा बनना और महसूस करना चाहते हैं। दूसरों को देने में सक्षम होने के लिए हमें बहुतायत की आंतरिक भावना की आवश्यकता है। हमें दूसरों से प्यार करने के लिए, जो कुछ भी जीवित है, उसके साथ अपने संबंध के पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता है। लेकिन अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए हाथ पैर मारने की इस आदत में, हम भूल जाते हैं कि हमारी गहरी संतुष्टि कहाँ है। एक तिब्बती पाठ में इसे इस तरह कहा है: "कंगाल के घर के नीचे अक्षय खजाने होते हैं, लेकिन कंगाल को कभी इसका एहसास नहीं होता है, और खजाने कभी नहीं कहते, 'मैं यहां हूं।' इसी तरह, हमारी मूल प्रकृति का खजाना, जो स्वाभाविक रूप से शुद्ध है, साधारण मन में फंसा हुआ है, और प्राणी दरिद्रता से पीड़ित हैं।"
ये सभी आवाजें हमें इस समझ से दूर ले जाती हैं कि हमारे पास पहले से ही वह है जिसकी हमें आवश्यकता है। जब हम ध्यान का अभ्यास करते हैं, तो हमें अपनी मूल प्रकृति के खजाने का पता चलता है। हम अपनी प्रतीत होने वाली गरीबी के बारे में चिल्लाने वाली आवाजों के उस कर्कश शोर को छोड़ देना सीखते हैं। हम सीखते हैं कि उन चीजों तक पहुँचने और समझने की कोशिश में नहीं फंसना चाहिए जिनकी हमें कभी ज़रूरत नहीं थी।
जब हम ध्यान का अभ्यास करते हैं, तो हम देखते हैं कि हम उन बोझों को नीचे रख सकते हैं जिन्हें हमने इतने लंबे समय तक ढोया है। रूमी कहते हैं: "बच्चों की तरह हम कब तक मिट्टी और पत्थरों से अपनी जेबें भरेंगे? दुनिया को जाने दो। इसे पकड़कर हम खुद को कभी नहीं जान पाते, कभी ऊँचे नहीं उड़ पाते।" जब हम ध्यान का अभ्यास करते हैं, हम जाने देते हैं। हम कुछ वस्तुओं और अनुभवों के अपने व्यसनों को छोड़ देते हैं, उन आवाजों पर विश्वास करना छोड़ देते हैं जो हमें बुलाती हैं। खुशी क्या है, हम कौन हैं और हमें क्या चाहिए, इनसे जुडी अपनी सीमित अवधारणाओं को छोड़ देते हैं। अपनी मूल प्रकृति के खजाने की खोज करके हम ऊँचे उड़ सकते हैं। हम आजाद हो सकते हैं।
==================================================
मनन के लिए मूल प्रश्न: आप इस धारणा से कैसे सम्बद्ध हैं कि हमारी मूल प्रकृति खोजे जाने की प्रतीक्षा में बैठा एक खजाना है? क्या आप कोई व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने दुनिया को जाने दिया और अपने मूल स्वभाव की पवित्रता से जुड़ सके ? आपको वस्तुओं और अनुभवों के अपने व्यसनों को छोड़ने में क्या मदद करता है?