एक उपहार का आभास , द्वारा इसिरा
जीवन का हमारा संपूर्ण अनुभव ही एक रिश्तेदारी है|हर एक क्षण उस पे केन्द्रित है जिस प्रकार से हम घटित हो रहे जीवन से अपना रिश्ता देखते हैं| इस को गहराई से समझने से हमें उन मूल मुद्दों को पहचानने में मदद मिलती है, जो हमारी अलगाववाद की भ्रमित अनुभूति के कारण उभर कर बाहर आते हैं| हमारी आत्मा / मूल स्तोत्र से कथित वियोग ही हमारे सारे आतंरिक विवाद की जड़ है|
ये वियोग का एहसास हमारे सभी मुद्दों की तह में है जिन्हें हम वैयक्तिक एवं समस्त मानव जाति की तरह झेलते हैं|नतीजन हम अपने आप से एवं अपने जीवन से अलगाव महसूस करते हैं| हमें एक विकृत भ्रान्ति का अनुभव हमारे समस्त समागमों (encounters) में मिलता है, जो हमारे समस्त अनुभवों को प्रभावित करता है| क्योंकि, अगर सरल रूप में देखें तो हमारे समस्त अनुभव हमारी अनुभूतियों से ही छने हुए होते हैं |
ये अनुभूतियाँ हमें उस अनुभव की ओर ले जाती हैं जो हम सोच रहे होते हैं | हम जब भी वो अनुभव करते हैं जो हम सोच रहे होते हैं , तो हम उसे अपनी विश्वास प्रणाली बना लेते हैं| और उस विश्वास प्रणाली से हम इस प्रकार सोचते और अमल करते रहते हैं जो हमारे जीवन के समस्त अनुभवों की रूप रेखा का निर्माण कर देता है|
प्रथम लक्षण जो हमारी आत्मा से हमारे कथित अलगाववाद से निकल के आता है, वो है हमारा भिन्नता में विश्वास|ये फिर हमारे विचार और एक “अन्य” की मानसिक बनावट में उजागर होता है| हम फिर उस से, आत्मा से , स्त्रोत से, एक शाश्वत जीवन से “ अन्य” एवं भिन्न, का अनुभव करने लग जाते हैं| और सभी दृष्टित चीज़ों एवं प्राणियों से भिन्न मान भी लेते हैं|
ये जो भिन्नता की मानसिकता है, ये हमारे स्त्रोत्र एवं अपनी आत्मा से बढ़ कर एक ऐसी मानसिकता में बढ़ जाते है जो समस्त श्रृष्टि से अलगाववाद , भिन्नता में परिवर्तित होने लगता है|हरेक इंसान से, जिससे हम मिलते हैं , ( यद्यपि वो हमारे असीमित आत्मा का ही हिस्सा है) हम “अन्य ‘ जैसा व्यवहार करते हैं| न सिर्फ एक “अन्य “ का एहसास होता है बल्कि हम उसे अपने से विपरीत मान लेते हैं| यह अनुभव द्वैतवाद का होता है,, ‘ मैं और आप”, “ ये और वो”, “सही और गलत “|
हम जिसे भी बाहरी अथवा अपने आप से “अन्य “ के रूप से देखते हैं, उसे हम “खतरा “ अन्यथा अवांछनीय के रूप में देखने लग जाते हैं| हम चाहते हैं कि अपने आप को बचाने के लिए उसे नकार दें, अथवा अपने आप को ज्यादा “पूर्ण “ करने के लिए उसे हासिल कर लें| हमारा अनुभव एक द्वैतवादी रिश्ते का बन जाता है, - जो अंत में हमारे न खत्म होने वाली छठपटाहट में परिवर्तित हो जाता है|
जब हम अपने आप को ही “अन्य “ में देखते हैं , तब यह मुमकिन नहीं रह जाता कि हमारा रिश्ता भय पर आश्रित हो| हमारा समागम ( encounter) फिर प्रतियोगिता का नहीं रह जाता, या अपने आप को बचाने का नहीं रह जाता, अथवा उसे हासिल करने का नहीं रह जाता| ये समागम गहरे रिश्ते का बन जाता है, और प्रेम पर ही केन्द्रित होता है|ये एक ऐसी अभिव्यक्ति के रूप में दीखता है जो जीवंत है, और सिर्फ और आदि तक “अभी “ ( NOW) पर ही केन्द्रित है| ये एक अवसर है हमें अपने वास्तविक अस्तित्व को व्यक्त करने का और अपने आप को महसूस करने एवं देखने का, एक प्रेम की अभ्व्यक्ति के रूप में|| और सामने वाले में उसका प्रतिबिम्ब देखने का , जिसे हम “अन्य” मानते आये हैं | ये आभास एक उपहार है, एक बहु आयामी आईना , जिससे हम अस्तित्व के असीमित स्वरुप को जान सकते हैं, अनगिनत रूपों में|
सार यह है कि आप अपने अस्तित्व से जितना जुड़े होगे, उतना ही आपका अनुभव समस्त जीवन से जुड़ा होगा|
मनन के लिए बीज प्रश्न : आप इस धारणा से कैसा नाता रखते हैं कि इस आभास को एक उपहार के रूप में देखा जा सकता है? क्या आप एक ऐसे समय की निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आप द्वैतवादी रिश्ते से ऊपर उठ कर प्रेम पर केन्द्रित हो पाए हों? आपको प्रत्येक समागम (encounter) में अपने ही अनंत (infinite) अस्तित्व को देखने में, और सभी को अपने ही अनगिनत रूप देखने में, किस चीज़ से मदद मिलती है?