हम जो हैं वैसा ही हमारा आतंरिक संघर्ष रहता है . द्वारा ब्रायन डोयल |
मुझे याद है, अस्पताल.में, घर में, पहाड़ों में, तेज क़दमों से चलते हुए, इसी उधेड़बुन में कि क्या उसका ऑपरेशन सही काम करेगा अथवा नहीं, या क्या वो जिन्दा रह पायेगा अथवा उसकी मृत्यु जायेगी | उस में एक प्रकार की स्पष्टता थी: रात्रि में , उस स्पष्टता के अन्दर मैं धीरे से जा कर सो जाता था| उसके अलावा कुछ भी स्पष्ट नहीं था| मैं सोचता था, उन बेचैन दिनों एवं रात्रियों में, क्या होगा अगर वो उसको पूरा ठीक नहीं कर पाते हैं और वो अपाहिज हो जाता है? एक बुझा हुआ सा बच्चा एक व्हील चेयर में, जो अनेक तरह की कठिनाईयों का सामना कर रहा है|क्या होगा अगर उसका दिमाग घूम जाता है? क्या होगा अगर वो जिन्दा तो बच जाता है पर बिना किसी प्रकार की बुद्धि के ? क्या होगा? उसका क्या अस्तित्व होगा? क्या वो ऐसा बन पायेगा जो वो बन सकता था ? क्या मैं उसे फिर भी प्यार कर पाऊँगा ? क्या होगा अगर मैं उससे प्यार नहीं कर पाया तो? क्या होगा अगर वो इतना टूट चूका होगा की मैं उसके मरने की प्रार्थना कर रहा हूँगा? वो प्रार्थनाएं क्या पाप की श्रेणी में आएँगी या पुण्य की?
मेरे पास उन विचारों के बारे में कुछ भी मधुर या अच्छा कहने के लिए नहीं है| मैं ये नहीं कह सकता कि ईश्वर ने मुझे अपने भय से लड़ने की शक्ति दी, या मेरी पत्नी के प्रेम ने मुझे बचा लिया, या कोई इस प्रकार की कवितामय या अच्छी लगने वाली बात भी नहीं कह सकता |मैं ये कह सकता हूँ कि मेरे मन में ऐसे विचार आते थे और वो विचार अभी भी मुझे सताते हैं| मैं उन विचारों को इन पन्नों से हटा कर आपके और अपने मध्य में भी इस तरह नहीं रख सकता , अपने दोनों से असम्बद्ध , क्योंकि वो विचार मेरे से हमेशा बंधे हुए हैं, मेरे ह्रदय के गहरे धागों की तरह|क्योंकि हमारे ह्रदय निर्मल नहीं हैं ; हमारे ह्रदय में जरूरतें और लालच उतने ही भरे हुए हैं जितना की प्रेम और कृपा | और हम अपने ह्रदय से हर वक़्त संघर्ष करते रहते हैं| यह संघर्ष ही तय करता है कि हम कौन हैं|हम जो बनना चाहते हैं वो हम होते नहीं हैं| अभी तक नहीं| शायद इसीलिए हमारे ह्रदय में एक न रुकने वाला यन्त्र लगा है, जो हमें उस जगह ले जाने की कोशिश कर रहा होता हैं , जैसे हम हो सकते हैं|
अंततः हो सकता है मेरे पुत्र को ह्रदय प्रतिरोपण की जरूरत पड़े, जब वो तीस या चालीस वर्ष की आयु का हो जायेगा, हालाँकि मेरे पुत्र लियाम ने हवा में ही कह दिया था कि उसने तय कर लिया है कि वो पुराने वाले ह्रदय से ही नया हृदय उगा लेगा | मैं उसके कहे एवं अंततः करे , के विरुद्ध शर्त नहीं लगा सकता, क्योंकि वो एक अनूठा बच्चा है| पर उस कहे से मैं ये विचार करने लगा : अगर हम अपने पुराने ह्रदय से नए ह्रदय उगा पाए तो हम क्या बन जायेंगे ? हम क्या बन जायेंगे अगर हम ऊपर उठ सकें , विकसित हो सकें, अगर हम अपने चिडचडेपन के स्वभाव से ऊपर उठ कर, सदा मुस्कुराते हुए स्वभाव में आ जाएँ. अगर हम अपनी मुट्ठी खुली रख सकें और हमारे हाथों के हथियार गिरा सकें, अगर हम अपने बनाये हुए गढ़ से आँखें मलते हुए बाहर आ सकें, अपने ही बनाये हुए जाल से , कारागार से बाहर आ सकें ? क्या हो अगर हम अपने ह्रदय के इर्दगिर्द भरे लावा को भेद सकें , अगर हम अपनी आँखों पर पड़े परदे को हटा सकें? क्या हो अगर हम वो करें जो हम कहते हैं करेंगे, अगर हम ऐसे बात करें जैसे कि हमारे सभी शब्द वास्तव में मायने रखते हैं, अगर हमारे सारे शब्द मजबूत एवं दया पूर्ण बन जाएँ ? क्या हो , अगर हम अपने ह्रदय में पांचवा कक्ष बना सकें, सातवाँ कक्ष बना सकें और नवां कक्ष बना सकें., और एक ऐसे प्राणी के रूप में उभर सकें , अपने ठगी वाली चमड़ी से बाहर? क्या हो अगर हम ऐसे इंसान बन सकें जो हम प्रत्यक्ष तौर पे, हर हालत में, सम्पूर्ण रूप से,पूर्ण रूप से एवम उस दैविक शक्ति से, बनने के काबिल हैं|
क्या होगा तब ?
मनन के लिए मूल प्रश्न: आप इस धारणा से कैसा नाता रखते हैं की जैसा हमारा आतंरिक संघर्ष रहता है हम वो ही हैं? क्या आप एक अपनी निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आप अपने हृदय से संघर्ष करके उभर सके हों ? आपको अपने पुराने ह्रदय में से नया ह्रदय विकसित करने में किस चीज़ से सहायता मिलती है?