जब विज्ञान तत्वमीमांसा का मध्यस्थ है
-- पॉल कलानिथी के द्वारा
हालाँकि मैं एक धर्मनिष्ठ ईसाई परिवार में पला-बढ़ा था, जहाँ प्रार्थना और पवित्रशास्त्र का पाठ एक रात्रिकालीन अनुष्ठान था, मैं, अधिकांश वैज्ञानिक प्रकारों की तरह, वास्तविकता की एक भौतिक अवधारणा की संभावना में विश्वास करने लगा, जो की पुरानी अवधारणाओं - जैसे आत्मा, ईश्वर और दाढ़ी वाले गोरे लोग - की जगह एक अंततः वैज्ञानिक विश्वदृष्टि वाली तत्वमीमांसा प्रदान करेगी। मैंने इस तरह के प्रयास के लिए एक संरचना बनाने की कोशिश में अपने जीवन के तीसरे दशक का एक अच्छा हिस्सा बिताया। समस्या, हालाँकि, अंततः स्पष्ट हो गई: विज्ञान को तत्वमीमांसा का मध्यस्थ बनाने का अर्थ न केवल ईश्वर को दुनिया से दूर करना है, बल्कि प्रेम और घृणा को भी, अर्थात - एक ऐसी दुनिया पर विचार करना जो स्वयं स्पष्ट रूप से वह दुनिया नहीं है जिसमें हम रहते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि यदि आप अर्थ में विश्वास करते हैं, तो आपको ईश्वर में भी विश्वास करना चाहिए। बल्कि, कहने का तात्पर्य यह है कि यदि आप मानते हैं कि विज्ञान ईश्वर के लिए कोई आधार नहीं प्रदान करता है, तो आप लगभग यह निष्कर्ष निकालने के लिए बाध्य हैं कि विज्ञान अर्थ के लिए भी कोई आधार प्रदान नहीं करता है और इसलिए, जीवन के पास कोई आधार नहीं है। दूसरे शब्दों में, अस्तित्वगत दावों का कोई महत्व नहीं है; सभी ज्ञान वैज्ञानिक ज्ञान है।
फिर भी विरोधाभास यह है कि वैज्ञानिक पद्धति मानव की उपज है और किसी प्रकार के स्थायी सत्य तक नहीं पहुंच सकती है। हम घटनाओं को प्रबंधनीय इकाइयों में कम करने के लिए, दुनिया को व्यवस्थित और उसमें हेरफेर करने के लिए वैज्ञानिक सिद्धांतों का निर्माण करते हैं। विज्ञान प्रतिकृति और निर्मित वस्तुनिष्ठता पर आधारित है। जितना मजबूत यह पदार्थ और ऊर्जा के बारे में दावा करने की क्षमता बनाता है, उतना ही वैज्ञानिक ज्ञान को मानव जीवन - जो कि अद्वितीय और व्यक्तिपरक और अप्रत्याशित है - की अस्तित्वगत गहराई के लिए अनुपयुक्त बनाता है। विज्ञान अनुभवजन्य, प्रतिकृति प्रस्तुत करने योग्य जानकारी को व्यवस्थित करने का सबसे उपयोगी तरीका प्रदान कर सकता है, लेकिन ऐसा करने की उसकी शक्ति, मानव जीवन के सबसे केंद्रीय पहलुओं -आशा, भय, प्रेम, घृणा, सौंदर्य, ईर्ष्या, सम्मान, कमजोरी , प्रयास, पीड़ा, पुण्य - को समझने में असमर्थता पर आधारित है।
जीवन के इन मूल पहलूओं और वैज्ञानिक सिद्धांत के बीच हमेशा एक अंतर रहेगा। किसी भी विचार प्रणाली से मानवीय अनुभव की परिपूर्णता नहीं हो सकती। तत्वमीमांसा का क्षेत्र रहस्योद्घाटन का प्रांत बना हुआ है। [...]
अंत में, इसमें संदेह नहीं किया जा सकता है कि हम में से प्रत्येक तस्वीर का केवल एक पहलू ही देख सकता है। डॉक्टर एक को देखता है, मरीज दूसरा, इंजीनियर तीसरा, तो अर्थशास्त्री चौथा, मोती गोताखोर पांचवां देखता है, शराबी छठा, केबल वाला सातवां, गड़रिया आठवां, एक भिखारी नौवां, तो पादरी दसवां। मानव ज्ञान कभी भी एक व्यक्ति में समाहित नहीं होता है। यह उन रिश्तों से बढ़ता है जो हम एक दूसरे और दुनिया के बीच बनाते हैं, और फिर भी यह कभी पूरा नहीं होता है। और सत्य उन सब से ऊपर कहीं आता है, जहां, जैसा उस रविवार के पठन के अंत में कहा था:
बोने वाला और काटने वाला एक साथ आनन्द मना सकते हैं। यहाँ के लिए कहावत की पुष्टि होती है कि "एक बोता है और दूसरा काटता है।" मैं ने तुम्हे उस को काटने के लिए भेजा जिस के लिये तुमने काम नहीं किया; दूसरों ने काम किया है, और तुम उनके काम का फल बांट रहे हैं।
मनन के लिए मूल प्रश्न: आप इस धारणा से कैसे सम्बद्ध हैं कि किसी भी विचार प्रणाली से मानवीय अनुभव की परिपूर्णता नहीं हो सकती है? क्या आप कोई व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने महसूस किया कि आप वही काट रहे हैं जो दूसरे ने बोया था? क्या चीज आपको यह याद रखने में क्या मदद करती है कि मानव ज्ञान कभी भी एक व्यक्ति में समाहित नहीं हो सकता है?