हम प्रासंगिक प्राणी हैं , पीर आगा मीर
यहाँ मेरा एक मुख्य प्रश्न है: यदि हमारी आध्यात्मिक और धार्मिक प्रथाएँ हमारी सहानुभूति, करुणा, प्रेम और देखभाल के दायरे का विस्तार नहीं कर रही हैं, तो उनका मतलब क्या रह जाता है? यदि वे हमें हमारी शारीरिक मृत्यु के लिए तैयार नहीं कर रहे हैं, तो वे किस उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं? संस्थागत धर्मों ने इस संबंध में अपना मार्ग खो दिया है, इसका एक कारण यह है कि एक बार धर्म में जागृत हुए मानव के आचरण को ठोस रूप नहीं दिया जा सकता और उसे पूरे विश्व लागु हुआ आचरण नहीं बनाया जा सकता। मनुष्य के रूप में, हम प्रासंगिक प्राणी हैं। 2100 वर्ष पूर्व जेरुशलम या 1500 वर्ष पूर्व मक्का या 4000 वर्ष पूर्व भारत या यहां तक कि 100 वर्ष पूर्व अमेज़न का संदर्भ, आज की अव्यवस्थित, उलझी हुई दुनिया में किसी प्रासंगिक आचार संहिता या नैतिक दर्शन में तब्दील नहीं होता। वास्तव में, ईसा या मोहम्मद ( इश्वर उन्हें शांति में वास दे)) का संदर्भ उस क्षण से अनुवादित नहीं किया जा सका जब उन्होंने भौतिक जगत छोड़ा था।
इसका मतलब यह नहीं है कि प्रथाओं,परंपराओं और संस्कृति के पहलुओं को संरक्षित और कायम नहीं रखा जाना चाहिए। बल्कि, उन्हें खुले तौर पर साझा किया जाना चाहिए और समकालीन आलोचनात्मक दृष्टिकोण और हम सभी के भीतर मौजूद विकासवादी आवेग (जोश) के प्रेमपूर्ण आलिंगन के साथ चर्चा की जानी चाहिए। क्या आपकी आध्यात्मिक साधना आपको अपने समय की कमियों का बेहतर छात्र बनाती है? क्या यह आपको यह प्रवृति वर्तमान में हो रहे परिवर्तनों की गहरी सेवा करने की अनुमति देती है? क्या यह प्रवृति आपको उस शरीर से अधिक गहराई से जोड़ती है जिसमें आप रहते हैं? क्या यह प्रवृति आपको इस उदार ग्रह , पृथ्वी , से अधिक गहराई से जोड़ती है, जो आपके घर और आपकी माँ के रूप में आपकी सेवा करती है ?
हम सब ने इस कष्टमय / अशांत समय में अवतार लेने का चयन किया है | आप अपने प्रसंग की व्याख्या कलयुग अथवा Anthropocene (जिसे वैदिक सन्दर्भ में अन्धकार युक्त समय माना गया है) कर सकते हैं, एक ऐसे युग का प्रसंग जो लघु अवधिक सोच ( short-term ) , अत्यधिक लालच, एवं हड़पने वाली मनोवृति को बढ़ावा देता है| हमें अपने संस्कृति के अच्छे विद्यार्थी बनना होगा जिससे कि हम इमानदार , न्याय पूर्ण आपत्ति करने वाले बन सकें | यह ही सूफियों का मार्ग है| हो सकता है कुछ व्यक्ति इसे धर्म विरोधी/ अथवा अप्रमाणिक करार दें, पर मैं इसे प्रासंगिक सम्बद्धता की व्याख्या देता हूँ|
हमारी आध्यात्मिक साधना का एक हिस्सा, अपनी संस्कृतियों का अध्ययन करना है, ताकि हम प्रतिकारक तर्क (सही जवाब या उपाय) को समझ सकें। हमारी आज की आधुनिक संस्कृति में प्रतिकारक बात है , पारस्परिक संबंधों को विकसित करना, इस जीवंत ग्रह पृथ्वी के साथ संवाद में रहना, सभी जीवों के साथ एकजुटता में कार्य करना, शक्ति का निर्माण करना और अत्याचार का विरोध करना, और जीवन को उपहार मानते हुए, अत्याधिक उपभोग, अटकलबाजी या संग्रह के बिना जो हमें मिला है उसमें रहना । हम जानते हैं कि जब तक हम पृथ्वी पर स्वर्ग नहीं बना लेते, तब तक हमारी आत्माएँ इस ग्रह पर वापस आती रहेंगी। अद्वैतवादी रूप से, हम यह भी समझते हैं कि पृथ्वी पर स्वर्ग पहले से ही है। हम अपनी राजनीतिक शक्ति को, एक साथ रह रहे , बहुत सारे , तरह तरह के सत्य , से प्राप्त करते हैं । यह ही ईश्वरीय इच्छा है।
मैं अपने उन भाई-बहनों की बातें उधार ले कर दोहराने से बेहतर कुछ नहीं कर सकता, जिन्होंने तालमूद ( यहूदी परम्पराओं की रचनाओं का संग्रह ग्रंथ) लिखा था:
“संसार के दुःख की विशालता से हतोत्साहित न हों ।
अभी कार्य सत्य परायणता से करें।
अभी सब पर प्रीतिकर करुणा रखें।
आप सभी कार्य पूर्ण करने के लिए बाध्य नहीं हैं,
लेकिन न ही आप इन्हें छोड़ने के लिए स्वतंत्र हैं।
“ चिंतन के लिए बीज प्रश्न: आपके लिए प्रासंगिक संबद्धता में रहना क्या मायने रखता है ?
क्या आप किसी ऐसे समय की व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं जब आप सभी जीवों के साथ एकजुटता से कार्य करने में सक्षम थे?
आपको कार्य को पूर्ण करने के भार को महसूस किए बिना इसमें जुड़ जाने में किस बात से मदद मिलती है?