ह्रदय सिर्फ भावनात्मकता नहीं|
द्वार सिंथिया बौरे गयूल्ट
अपने चित्त को ह्रदय में ही लगायें | फिलोकिया ( Philokalia), जो की पूर्वी क्रिस्चियन समुदाय के अध्यात्मिक लेखों का एक दिव्यान्गत संग्रह है, में पृष्ट दर पृष्ट यही रोक उभर के आती है| और उसमे इसका जोर एवं विशिष्टता अत्यंत ही ध्यान आकर्षित करने वाली है| जैसे ही यह पुरातन ज्ञान समकालीन श्रवण शक्ति पे पड़ता है, यह अमूमन एक आधुनिक फ़िल्टर द्वारा सुना जाता है, और यह इस ज्ञान के लिए उपयुक्त अवसर नहीं रहने देता है| अभी के समय में, “ ह्रदय “ शब्द मूलतः भावनाओं से जुड़ा माना जाता है, ( जो मन के मानसिक कर्मो से भिन्न है) और यह अनुदेश ऐसा माना जायेगा जैसे “अपने मन से बाहर निकलकर भावनाओं में आ जाओ”, जो कि इस अनुदेश के सही मायने से बिल्कुत भिन्न है|
यह सत्य है कि ह्रदय की मूल एवं पैदायशी भाषा भावात्मकता है- अनुभूति गहरी संवेदनाओं द्वारा | यह समकालीन साधकों को अचंभित कर देगा , कि जो चीजें हम अभी संवेदनशील जीवन से जोड़ते हैं, - जूनून , घटना चक्र, प्रगाढ़ता, सम्मोहक भावनाएं , ये ऐसी विशिष्टताएं हैं जो पुरातन काल में ह्रदय से जुड़े होने के बजाय कलेजे से जुडी मानी जाती थीं| ये व्याकुलता एवं गंदलेपन ( पित्त का आधिक्य) के प्रतीक थीं , ना की वास्तविक संवेदनशीलता के |और सही में, ये ही वास्तविक संवेदनशील जीवन के अवरोधक नज़र आते हैं, वो ध्वंसक जो इसकी शक्ति चुरा लेते हैं, और इसके सही स्वरुप को विकृत कर देते हैं|
अतः , इसके पहले कि हम पुरातन शास्त्रों के ज्ञान को समझने का प्रयत्न करें, हमें चाहिए की हम धीमे से भावनात्मकता को अपनी अध्यात्मिक वास्तविकता का राजसिक मार्ग मानने वाले अपने समकालीन झुकाव को, किनारे रख दें, और पुरातन समझ की ओर वापस जायें, जहाँ से यह ज्ञान उपजा है, जिस में ह्रदय को एक अत्यंत विस्तृत एवं प्रकाशमान भूमिका में माना गया है|
पश्चिम की महान परम्पराओं के अनुसार ( यानि क्रिश्चियन , यहूदी, इस्लामिक) , ह्रदय सबसे प्रथम एवं मुख्यतः , अध्यात्मिक अनुभूति का अंग है| इसका मुख्य कार्य , प्रत्यक्ष से आगे देखना है, चीज़ों के संकूचित ( चिन्हित) सतह से आगे देखना है ; उस गहन सत्य को देखना है जो किसी अंजान गहराई से प्रगट हो कर हमारे जीवन की सतह पे , बिना उसमे उलझे, हलके खेल खेल रहा होता है: ऐसे विश्व में, जहाँ मायने, अंतर्दृष्टि एवं स्पष्टता एक भिन्न एवं नूतन प्रारूप में सामने आती हैं| संत पॉल ने इस दूसरी तरह की अनुभूति को “ श्रद्धा “कहा ( श्रद्धा का मायने है उम्मीदों का मूल , अनदेखी चीजों का साक्ष्य ),परन्तु श्रद्धा , हमारे दीमाग द्वारा गलत तरीके से समझ ली जाती है| जो श्रद्धा दर्शाती है वो अँधेरे में छलांग लगाना नहीं है, ( जैसा की ज्यादातर समझा जाता है) , पर एक अँधेरे में सूक्ष्म देखने की प्रक्रिया, एक प्रकार का अध्यात्मिक दृष्टि कोण जो हमें एक आतंरिक निश्चितता से देखने में मदद करता है, कि जो दुर्गम स्वर्णिम धागे हम अंतःकरण में देखते हैं, वो कहीं ना कहीं हमें राह अवश्य दिखाते हैं|
मनन के लिए बीज प्रश्न: इस बात से आप क्या समझते हैं कि ह्रदय भावनाओं के बारे में नहीं है, वरन गहरी अध्यात्मिक अनुभूतियों का छेत्र है ? क्या आप ऐसा कोई अनुभव साझा कर सकते हैं, जब आपने उपरी सतह की भावनाओं से ज्यादा, गहरी अनुभूतियों को महत्व दिया हो? आपको एक वास्तविक संवेदनशील जीवन जीने में , अवरोधकों से बच के चलने में किन चीज़ों से सहायता मिलती है ?