हर स्थिति में स्वयं रहो, यही खेल है, द्वारा राम दास
जब मैं पैदा हुआ, तो मैंने इस यान में रहने के लिए एक पोशाक धारण कर ली । वास्तव में मेरा शारीर ही वो पोशाक था और इसी मे एक परिचालन यन्त्र था, जो मेरे मश्तिष्क का अग्रिम भाग था, जो मुझे संयोजन करने एवं अन्य चीज़ों में मदद करता था| जैसे कि अंतरिक्ष यात्री, अंतरिक्ष में जाने से पहले अंतरिक्ष पोशाक को इस्तेमाल करना सीखते हैं, कैसे किसी चीज़ को पकड़ना होता हैं, कैसे उठाना होता हैं, मैंने भी उसी तरह सीखा| जब आप पोशाक का इस्तेमाल सीखते हैं , तो इनाम के तौर पे आपको प्यार और दुलार और अन्य सभी चीज़ें मिलती हैं | आप इसके इस्तेमाल में इतना सदृढ़ हो जाते हैं, कि आप अपने आपको इस पोशाक से भिन्न देख ही नहीं पाते |
आप सड़क पर निकलते हैं तो कोई विशिष्ट व्यक्ति बने होते हैं, आप विशिष्ट व्यक्ति के जैसे कपडे पहनते हैं, आपका चेहरा विशिष्ट व्यक्ति की तरह होता है| सभी व्यक्ति विश्व में अपनी अहमियत्ता बार बार जताना चाहते हैं, और जब आप दो व्यक्ति मिलते हैं तो ऐसा प्रतीत कराते हैं मानो दो महान व्यक्तित्व मिल रहे हों| हम सब इस तकरार में शामिल हो जाते हैं| आप कहते हैं , मैं आपको जता दूंगा कि आप कौन हैं , या आप क्या सोचते हैं की आप कौन हैं, अगर आप मुझे जता देंगे की मैं मैं वो हूं, जो मैं मान रहा हूं, की मैं हूं|
आपका संपूर्ण जीवन एक पाठ्यक्रम है | जो समस्त वस्तु आपके समक्ष हैं, वो आपके प्रबोधन (enlightenment) के लिए ही है | कितनी विस्मयकारी है इस रचना की खूबसूरती को देख पाना | जब आप अपना मुखोटा हटा देते हैं, तो औरों के लिए अपना मुखोटा हटाना आसान हो जाता है|
हमें अपनी संस्कृति में सिखाया गया है कुछ व्यग्तिगत विशिष्टताएँ, अलग दीखने के लिए, प्रदर्शित करो| हम अन्य लोगों को देख के सोचते हैं, की ये “महान, मूर्ख, वृद्ध , युवा, अमीर, निर्धन,” है, और हम उन्हें भेदभाव के पैमाने पे तौल के , उनसे वैसा ही बर्ताव करते हैं| हम अन्य सभी को अपने से भिन्न देखते हैं| एक नाटकीय लक्षण हम आत्मिक अनुभव का ये देखते हैं, की हम यह देखना शुरू कर देते हैं की सामनेवाला मेरे से बहुत चीज़ों में समान है, और वो मेरे से अलग या भिन्न नहीं है|
हमें कैसे पता चलता है की हम कौन हैं ? हम प्रबोधन ( enlightenment) से एक सांस दूर हैं, या अपनी मृत्यु से एक सांस दूर हैं , ये किसको पता है? यह बहुत बड़ी अनिश्चितता है| और यही सभी घटनाओं को खुला रखती है|
जब आप जंगले में जाते हैं और विभिन्न पेड़ों को देखते हैं, उनकी भिन्नता देखते हैं|कुछ पेड़ टेढ़े हैं, कुछ झुके हैं, कुछ सीधे हैं, कुछ पूर्णतः हरे भरे हैं और कुछ ना जाने कैसे कैसे हैं| पेड़ों को देख के आप उनकी भिन्नता अपना लेते हैं| आप समझ जाते हैं की जो है, वो ऐसा क्यूँ है| आप मान लेते हैं की शायद कुछ पेड़ों को अच्छी सूर्य रौशनी नहीं मिली इसलिए ऐसे हो गये हैं| आप उन पेड़ों के लिए भावुक नहीं हो जाते हैं| आप इस भिन्नता को अपना लेते हैं|आप उन पेड़ों को सराहते भी हैं| पर जब भी आप मनुष्यों के पास जाते हैं तो आप इस सत्य को भूल जाते हैं | आप कहना शुरू कर देते हैं की “ मैं ऐसा हूं, आप वैसे हो ”| आपका आलोचनात्मंक दिमाग काम करना शुरू कर देता है|
मैं मनुष्यों को भी पेड़ों के रूप में देखना शुरू कर देता हूं |यानि मैं उन्हें भी वैसे ही अपनाना शुरू कर देता हूं जैसा की वो हैं|
हर स्थिति में स्वयं रहो, यही खेल है | वैसे ही बने ,पूर्णतयः सत्यता एवं जाग्रति पूर्वक , जैसा आपको ज्ञान है| आपका समस्त जीवन एक पाठ्यक्रम है| जो समस्त वस्तु आपके समक्ष हैं, वो आपके प्रबोधन (enlightenment) के लिए ही है कितनी विस्मयकारी है इस रचना की खूबसूरती को देख पाना |
मनन के लिए बीज प्रश्न : इस बात को आप कैसे मानते हैं, की “हर स्थिति में स्वयं रहो, यही खेल है” | क्या आप कोई निजी वाकया साझा कर सकते हैं जब आपने किसी को “ जहाँ हैं , जैसे हैं” उसी के आधार पे अपनाया हो? आपको मनुष्यों को , भिन्न भिन्न पेड़ों की तरह अपनाने में, किस चीज़ से मदद मिलती है?