मेरा अपना चलचित्र , जो चैबीस घंटे चलता रहता है | द्वारा कृष्णा दस
कृपा की बारिश से हमें क्या अलग रखता है | ये मैं , मेरा और हमारा से , हमारा चौबीस घंटे का असीमित लगाव है | हम सवेरे उठते के साथ अपना "खुद का चलचित्र " लिखना शुरू कर देते हैं | आज मैं क्या करने वाला हूँ? आज मैं कहाँ जाने वाला हूँ? मैं वहां कैसे पहुंचूंगा?क्या इतना ठीक है? क्या ये बहुत ज्यादा है? क्या होने वाला है?मैं क्या पहनूंगा? मैं कैसा लगता हूँ? क्या वो मुझको पसंद करता है? क्यों नहीं? पूरे दिन भर | हमारा अपना चल चित्र | हम लेखक भी खुद हैं, निर्देशक भी खुद हैं, निर्माता भी खुद हैं, एवं कलाकार भी खुद हैं | हम खुद ही उसपे समीक्षा लिखते हैं, फिर उसे पढ़ते हैं और हतोत्साहित हो जाते हैं | फिर हम सो जाते हैं और फिर दूसरे दिन यही प्रक्रिया शुरू कर देते हैं| मैंने कितनी दफा ये देखा है | फिर भी जब भी ये TV खोलता हूँ तो सामने मैं, मेरा , हमारा, ही होता है |
धीरे धीरे ( मुख्य शब्द) एवं निसंदेह ( दूसरा मुख्य शब्द) , भजन जैसे आत्मिक अभ्यास , जीवन के चेतना प्रारूप को हटाते हैं, और ये ऐसा हमारे अपने आप के मोह को , जो हमें दूसरों से जुदा रखता है, और जो हमें हमारे ह्रदय की ख़ुशी देखने नहीं देता , को धीरे धीरे भंग करके करते हैं | हम जीवन में जो भी करते हैं, वो सभी से और सब चीज़ों से जुड़ा होता है पर चूँकि हम अपनी दुनिया में ही खोये होते हैं, इसलिए जब हम दूसरों को छूने के लिए बढ़ते हैं, तो हम सिर्फ उनमे ,अपने प्रारूप को ही, छू पाते हैं, और वे भी हम में अपने प्रारूप को ही छू पाते हैं| हम शायद ही कभी " वास्तविक" एक दुसरे को छू पाते हैं |
१९९७ में , जब मैंने लोगों के साथ, भजन के लिए, यात्रा शुरू करी , तो एक मित्र ने टक्सन, एरिज़ोना , के एक मध्य पूर्वी भोजनालय, कारवां, में, मेरे द्वारा कीर्तन का आयोजन किया | मुझे उस जगह पे बैठ के कीर्तन करना था, जो उस भोजनालय का छोटा सा प्रतीक्षा स्थल था | दूसरी और भोजनालय का रसोई घर था | मैं जमीन पे अपने मित्र बॉब के साथ बैठा था, और साथ में आठ नौ व्यक्ति जो कीर्तन करने आये थे, भोजनालय को जाने वाले रास्ते में , जिसे ग्राहक और वेटर , इस्तेमाल करते हैं, कुर्सियों पे बैठे थे
ग्राहक हमें उत्सुकता भरी निगाहों से देख रहे थे: खाना अंदर बाहर हो रहा था : बर्तन धुल रहे थे : एक्सप्रेसो कॉफ़ी बन रही थी: और मैं भजन कर रहा था और सोच रहा था कि इससे ख़राब क्या हो सकता है, पर मैं शायद गलत था | जैसे ही मैं रात्रि का अंतिम भजन "नमः शिवाय" गाने वाला था , तभी दो मूल अमरीकी। जो छे फुट से भी अधिक लम्बे थे, जिनका वजन १५० किलो होगा, ने शराब के नशे में झूमते हुए प्रवेश किया,| वे मेरे सामने की कुर्सी पे बैठ गए और भाव शुन्य दृष्टि से मुझे देेखते रहे | मुझे लगा की मैं शायद गा नहीं पाऊंगा और कीर्तन समाप्त होने से पहले ही मर जाऊँगा |
मैंने और बॉब ने भजन शुरू किया, और बहुत ही दिल से गाया और भजन को एक लम्बे ॐ से समाप्त किया | उसके बाद सब थोड़ा सा शांत हो गया था, सिर्फ रसोई घर की आवाज़ों के | मैं अपनी आँखें बंद करके बैठा था और मुझे लगा कि उनमे से एक, खड़े होके, मेरी तरफ घूर रहा था | मुझे लगा की ये पहाड़ जैसा मनुष्य है| मैंने मन ही मन कहा " प्रभु जी अब क्या, अब मेरे साथ क्या कराने वाले हो | उस व्यक्ति ने कहा " मैं मूल अमरीकी हूँ," "मैं वियतनाम में था", और "जब मैं सुनता हूँ तो मुझे सही भजन का अनुभव होता है , और आप में ये कला है "| ऐसे कहके वो धीरे से चला गया और उसके बाद मेरी सांस में सांस आयी |
मैं अपने ही दिमागी चलचित्र में इतना खो गया था - मेरा अपना प्रोग्राम , किस से और किस चीज़ से मैं भय भीत हूँ, की मुझ में ये देखने की गुंजाइश नहीं रही की वास्तविक रूप में ये व्यक्ति कौन है| और मेरे लिए यह बहुत ही नम्र करने वाला अनुभव था की पूरी रात के कीर्तन के बाद भी , मै अपनी दुनिया के प्रारूप में ही घिरा हुआ था | हम सभी , कुछ हद तक, अपनी दुनिया में ही खोए रहते हैं | हमें जागरूक होना होगा की कैसे हमारे दिमाग के प्रोग्राम चलते रहते हैं, और कैसे ये प्रोग्राम हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं, और कैसे ये हमें लोगो के सही स्वरुप से दूर करदेते हैं, और कैसे हम शायद, उन्हें अपने ,अंदरूनी घेरे के बाहर, से ही देखते हैं | प्रत्येक व्यक्ति अपने भूतकाल को साथ लाता है, और अपने भविष्य को भी हर घडी साथ रखता है | हमें लगता है हम इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण इंसान हैं , और बाकि सभी हमारे सन्दर्भ से ही होते हैं | मैं आपको देखता हूँ, आपके कपड़ों को देखता हूँ आपके बाल देखता हूँ, और अपने आप में , आपके बारे में, एक अचेत धारणा बना लेता हूँ | ये शायद आप नहीं हो, परन्तु आपके बारे में मेरी धारणा है | सभी इंसान यही करते हैं | बुद्ध भगवान् ने कहा था की दूसरों से तुलना , अंतिम आदत है जो हमें छोड़ती है | हर वक़्त हम तुलना कर रहे होते हैं: ये मेरे से ऊँची है, ये वो है, ये वैसे है। पूरे दिन हम अपने आपको को दूसरों की नज़र से ही देख रहे होते हैं|
मनन के लिए बीज़ प्रश्न : ये बात आपके लिए क्या मायने रखती है कि " जब आप किसी को छूने के लिए आगे बढ़ते हैं , तो आप सिर्फ उस व्यक्ति के प्रति आपकी धारणा को ही छू पाते हैं ,, और वो भी आपके प्रति उनकी धारणा को ही छू पाते हैं ? किसी ऐसी निजी कहानी को साझा करे जब आप , एक समय , किसी अन्य के प्रति अपने प्रक्षेपण को देख पाए हों? आपको तुलना करने से मुक्त करने में किस चीज़ से सहायता मिलती है ?