जो अच्छा लगे वो आप करिए, पर मैं देख रहा हूं , द्वारा हुबर्ट बेनोइट
एकांत में, एक शांत जगह, शारीर ढीला छोड़ा हुआ, ( चाहे लेटे हुए या आरामपूर्वक बैठे हुए) मैं अपने मश्तिष्क में , अपने आप उठने वाली, आकृतियों को देखता हूं और अपनी कल्पना शक्ति को, जो भी उसे पसंद हो, उत्पत्ति करने देता हूं| यह तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे मैं अपने आकृति -निर्माता मश्तिष्क को कह रहा हूं, “ जो आच्छा लगे वो आप करिए , पर मैं आपको वो करते हुए देखता रहूँगा “ |
जब तक कोई ऐसी ही प्रवृत्ति कायम रखता है, या उससे भी बेहतर कहें तो, किसी प्रकार की प्रवृत्ति कायम रखने को विराम दे देता है, तब वह काल्पनिक मन कुछ भी उपज रहीं करता है और उसका पटल कोरा रहता है, सभी आकृतियों से मुक्त| मैं उस वक़्त एक ऐसी अवस्था मों होता हूं जिस मे शुद्ध ऐच्छिक ध्यान है, जिसमे कोई आकृति नहीं है जिसे पकड़ा जा सके | मैं किसी एक चीज़ पे ध्यान नहीं दे रहा हूं, मैं ऐसी चीज़ पे ध्यान दे रहा हूं जो शायद स्वयं प्रकट हो जाए, पर शायद वो प्रकट नहीं होती | जैसे ही मेरी ऐच्छिक ध्यान की प्रक्रिया में कमजोरी आती है स्वतः ही विचार एवं आकृतियाँ नज़र आनी शुरू हो जाती हैं| ये तथ्य मेरे संज्ञान में उसी वक़्त नहीं आता चूँकि उस वक़्त मेरा ध्यान मुर्छित है: कुछ देर बाद मुझे समझ में आता है कि क्या हुआ है| मैं पता चलता है कि मैं ये या वो सोचने लग गया हूं| जैसे ही मुझे यह ज्ञात होता है , मैं अपनी कल्पना से कहता हूं, “ आप मुझे से उस बारे में वार्तालाप करना चाहते हो, आप करो, मैं सुन रहा हूं|” उसी वक़्त सब वार्तालाप शांत हो जाता है, और मुझे उस रूकने का भी आभास /ज्ञान हो जाता है|शुरू में शुद्ध ध्यान के क्षण बहुत संक्षिप्त होते हैं,\( धीरे धीरे वो क्षण बड़े होने लगते हैं) | हालाँकि वो क्षण संक्षिप्त होते हैं, पर वो सिर्फ अति सूक्ष्म पल नहीं होते , उनमे भी ठहराव एवं निरंतरता होती है|
इस अभ्यास की निरंतरता कायम रखने से एक मानसिक स्वचालन की उपज होती है , जो हमारी प्राकृतिक छवि या विचार बनाने के मानसिक स्वचालन पे रुकावट लगा देती है| यद्यपि ये रुकावट जागृत पूर्वक एवं ऐच्छिक लगती है , पर जैसे जैसे इसकी आदत लगने लगती है ये सहज एवं स्वचालित लग जाती है|
मुक्ति प्रदायक तरीके के सिद्धांत अब स्पष्ट हैं|मनुष्य अपने काल्पनिक स्वचालन पे जीत जाता है: अपने को उनसे विपरित करके नहीं, परतु उन्हें खुली छूट दे कर, और उसका रवैया उनके प्रति एक जागरूक तथस्टता का रहता है| उसकी मुख्यतः जीत इस बात से मानी जाती है जब उसके संघर्ष का अंत हो जाता है, जहाँ उसके स्वचालित ध्यान को हिस्सा लेने की जरूरत भी नहीं रहती| )यहाँ पर यह कहना भी आवश्यक है , ये हिस्सा लेने की प्रक्रिया , उसके शुद्ध , निष्पक्ष स्वरुप से असंगत है)| मनुष्य अपने पे राज करता है बंटवारा करके, अपनी मानसिक शक्तियों में से किसी भी तरफ़ झुके बिना, और इस तरह वो दोनों शक्तियों को आपस में निष्प्रभावित करके| दैविक प्रयोजन का यह तात्पर्य नहीं है वह प्राकृति को उलट दे , परन्तु यह कि वो प्रकृति से ऊपर उठ जाए, और जब वो उस उच्च अवस्था में पहुँचाने में कामयाब हो जाती है तब प्रकृति खुद ही आनद पूर्वक समर्पित हो जाती है|
मनन के लिए बीज प्रश्न: अपनी मानसिक शक्तियों में से किसी का भी पक्ष लेने से इनकार करना आपके लिए क्या मायने रखता है? क्या आप ऐसे समय की निजी कहानी साझा कर सकते हैं जब आपने अपने “काल्पनिक स्वचालन” के प्रति जागरूक तठस्थ्ताका रवैया अपनाया हो? आपने ऐसा कौन सा मानसिक स्वचालन विकसित किया है जिससे आप कल्पना के स्वाभाविक स्वचालन पे रोक लगा पाए हों?