नदी वापस नहीं जा सकती है |
खलील जिब्रान
ये कहा जाता है की समुन्द्र में प्रवेश करने से पहले
एक नदी भय से सिहर उठती है।
वो उन रास्तों को देखती है
जिनसे वो गुजरी है,
पहाड़ों की चोटियों को ,
वो लम्बी और घुमावदार राहें,
जंगलों एवं गांवों को,
जहाँ से वो गुजरी है, देखती है. |
वो अपने सामने समुन्द्र को देखती है
जो इतना विशाल है कि
उसमे उतरने का मतलब है कुछ और नहीं
बस खुद हमेशा के लिए लुप्त हो जाना है |
पर और कोई रास्ता भी तो नहीं है ,
नदी वापस नहीं जा सकती है।
कोई भी वापस नहीं जा सकता है।
जीवन में वापस जाना असंभव है।
नदी को जरूरत है समुन्द्र मैं उतरने का खतरा उठाने की
क्योंकि तभी उसका भय ख़त्म होयेगा,
तभी उसके समझ मैं आएगा
कि इसका आशय समुन्द्र में खोने का नहीं
बल्कि स्वयं समुन्द्र बन जाना है।
मनन के लिए बीज प्रश्न : स्वयं समुन्द्र बन जाना, आपके लिए क्या मायने रखता है? क्या आप ऐसे समय का अनुभव साझा कर सकते हैं जब आपने खुद के खो जाने के भय से ऊपर उठ कर, ऐसी पहचान मैं प्रवेश किया, जो आपकी कल्पना से भी ऊँची थी? वो क्या है जो आपको, हर पल , अपने नदी स्वरुप को छोड़ कर समुन्द्र स्वरुप अपनाने मैं मदद करता है ?