ध्यान का विपरीत क्रिया नहीं वरन प्रतिक्रिया है , द्वारा रिचर्ड रोहर
ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा समाज एक निम्न स्तर पर है, जहाँ तक कि विवादस्पद विषयों को हमारे राजनैतिक बातचीत के बीच, चुनौती देनेकी बात करते हैं या हमारी आध्यात्मिक प्रतिक्रियाएं हैं। मुझे लगता है की इस ध्रुवीकरण से बहार आने का रास्ता मौन को दोबारा अपनाने में है।
मौन का अपना जीवन है। ये सिर्फ वो नहीं है जो शब्दों के इर्द गिर्द है या छवि एवं वृतांतों के अधीन हो। ये अपने आप में एक अस्तित्व है जिससे हम सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं और अंदरूनी करीबी पा सकते हैं। दार्शनिकता पूर्वक हम कहें तो यह अस्तित्व एक प्राथमिक गुण है जो सभी गुणों से पहले आता है। मौन हर यथार्थ का आधार है , एक नग्न अस्तित्व, अगर आप माने तो | शुद्ध अस्तित्व वो है जिससे सब बाहर आते हैं और फिर उसी में समां जाते हैं। या मैं कहता हूँ यथार्थ ही प्रभु का सबसे करीबी साथी है।
जब भी हम मौन से एक जीवित , मौलिक रूप में जुड़ते हैं, हम तब बाकि सभी चीज़ों को देख और गहराई से अनुभव कर सकते हैं , उसी दायरे में। मौन एक अभाव नहीं, पर मूलभूत उपस्थिति है। मौन हर " मैं जानता हूँ "को विनम्र और सहनशील "मैं नहीं जानता हूँ "से घेर लेता है। मौन हर आयोजन , मनुष्य,जीव और सभी बनाई हुई चीज़ों की स्वायत्ता एवं मर्यादा की रक्षा करता है |
मैं ये स्पष्ट कर दूँ , कि मैं जिस मौन की बात कर रहा हूँ, वो अन्याय की अपेक्षा नहीं करता है। जैसा कि बारबरा होल्म्स समझाती हैं, " हम में से कुछ मौन को पूरा अपनाते हैं , अपनी जिज्ञासा को पुष्ट करने में और अन्य , जिन्हें अत्याचार ने चुप करा दिया है, वो इसे अपने आद्यात्मिक जुड़ाव के आनद की आवाज़ को याद ताज़ा करने वाली विषमता में लगाते हैं"| चाहे कितना ही भयावह " मध्य केंद्र बिंदु" मैं स्थापित होना हो , हमें अपनी शांति ,चीत्कार के मध्य में ,खोजनी होगी, "तथास्तु" के ठहराव मैं खोजनी होगी, ताकि हम वापसी की ओर पहले कदम उठा सकें।
हमें इस अंदरूनी शांति के क्षेत्र में वापस आने का रास्ता खोजना होगा , यहीं पे रहना होगा , यहीं पे टिकना होगा। बाहरी शांति का मायने बहुत थोड़ा है, अगर गहरी अंदरूनी शांति न हो। बाकी सभी चीज़ें बहुत साफ़ नज़र आतीं हैं जब वो शांति से उभर या प्रकट हो रही हों।
.बिना मौन के , हम अपने अनुभवों को अनुभव नहीं कर पाते। हम यहाँ हैं पर यहाँ की गहराई में नहीं हैं। हम कई अनुभवों से गुजरते हैं, पर उनमे ये शक्ति नहीं है कि वो हमें बदल सकें ,जागरूक कर सकें या वो आनंद या शांति दे सकें जो ये संसार नहीं दे सकता , जैसा की ईसा मसीह ने (जॉन 14 ;27 ) मैं कहा है ,
बिना किसी स्तर की अंदरूनी शांति और थोड़ी बाहरी शांति के, हम जीवन को जी नहीं रहे , प्रति क्षण का आनद नहीं ले रहे। चिंतन एवं ध्यान का विपरीत क्रिया नहीं बल्कि प्रतिक्रिया है। हमें शुद्ध क्रिया का इंतज़ार करना होगा जो गहरी शांति से ही उभरती है |
मनन के लिए बीज़ प्रश्न : आप इस कथन को कैसा मानते हैं, " शुद्ध क्रिया , गहरी शांति से ही उभरती है.? क्या आप ऐसा कोई अनुभव साझा कर सकते हैं जब आप, 'चीत्कार" के केंद्र में एवं "तथास्तु" के मध्य के ठहराव मैं , वापस पहुँच पाए हों। इस आदिकालीन प्रमुख उपस्थिति मैं रहने में आपको किस चीज़ से सहायता मिलती है।