जमीनी सतह पे जीवन द्वारा पार्कर पामर
प्रश्न : : “जमीनी सतह पे जीवन “ , इस प्रकार का जीवन| क्या आप तथ्य का विस्तार कर सकते हैं कि ये आपके लिए क्या मायने रखता है|
ये मेरे जीवन और मेरी अवसाद ( depression) की यात्रा के सन्दर्भ में एक ,बहुत ही महतवपूर्ण, समय की याद दिलाता है| मैं एक मनो चिकित्सक से अपने अवसाद के विषय में मिलता था, और उसने मुझे लम्बे समय तक ध्यान से सुना था| और सातवीं या आठवीं मुलाकात के बाद उसने मुझसे कहा “ अगर मैं तुम्हारी बातें, तुम्हीं को दिखा सकता ,तो कहता कि तुम ऐसा मान रहे हो मानो ये अवसाद तुम्हारा बहुत बड़ा शत्रु है और ये तुम्हे अपने हाथों से कुचल रहा है| और उस वक़्त ये बिलकुल ऐसा ही महसूस होता भी था| फिर उसने कहा “ क्या ये संभव है कि तुम अपने अवसाद की ऐसी छवि बनाओ , जैसे तुम्हारे किसी प्यारे मित्र का हाथ तुम्हे ऐसी जमीन पे दबाने की कोशिश कर रहा हो, जिस पे खड़ा रहना तुम्हारे लिए सुरक्षित है ? वो अत्यंत ही ज्ञानी एवं कुशल मनो चिकित्सक था| उसने मुझे कोई उपदेश नहीं दिया , उसने सिर्फ वो छवि मेरे सामने प्रकट कर दी| उन्होंने विश्वास किया कि मैं उस छवि पे काम कर पाऊँगा और मैंने किया भी| हम इस विषय में , अधिक बातें ,आपस में ,कई महीनों तक करते रहे|
जो मैं समझ पाया वो ये है कि ; मैं एक “ऊँचाई “ (altitude) पर ही रह रहा था, और मुझे याद है कि मैं उन तरीको को पहचानने में लग गया जिनसे मैं ये कर रहा था| मैं “ऊँचाई “ पर, अपने अहम् के कारण रह रहा था, जो चाहता था उस मीनार के शीर्ष पर रहना| मैं “ऊँचाई “ पर अपनी बुद्धि के कारण रह रहा था , जो हर बात का समाधान, बुद्धि द्वारा सोच के, निकलना चाहती थी, पर शायद, अवसाद के बाहर, आप विचार या सोच के माध्यम से नहीं निकल सकते| मैं “ ऊँचाई “ पर अपनी उच्च नैतिकता के कारण रह रहा था, जो की मेरे अंदर से नहीं आ रही थी : वो सिर्फ बहुत सारे “कर्त्तव्यों” का एक झोला था, जो सिर्फ इश्वर जानता है मुझे किस वंशज या कहाँ से प्राप्त हुए हैं| मैं “ ऊँचाई” पे रह रहा था , कुछ गलत फहमियों के कारण , जो मुझे आध्यात्मिकता के बारे में थी, कि वो एक अतिमानव है , “ऊपर, ऊपर और दूर” जैसी होती है|
ये बहुत सारी “ उंचाईयां “ हैं , जो मैंने अभी गिनाई है| शायद में वायुमंडल की उस जगह पे था , जहाँ ऑक्सीजन की बहुत कमी होती है| वो जीवन के लिए उपयोगी जगह भी नहीं है| पर सबसे बड़ी बात ये है , कि जब भी आप बहुत बड़ी ऊँचाई पे रह रहे होते हैं, और वहां से लड़ खड़ा के गिरते हैं, जैसा कि हमारे जीवन में अक्सर होता है, हमें बहुत नीचे गिरते हुए आना पड़ता है, और शायद हम अपने आपको मार भी बैठें |
अवसाद की कभी कभी कल्पना की जा सकती है , विशेषकर वो अवसाद जो ख़ुदकुशी पे ख़त्म होते हैं, कि वो एक प्रकार का लम्बा, नीचे ,गिरना होता है, बहुत ही नीचे| पर अगर आपकी अध्यात्मिक खोज है कि आप अपने पैरों पे जमीन पे खड़े हो जायें, और आपकी मानसिक खोज है कि आप अपने विवेक का इस्तेमाल जमीन पे रह के करें, और आपकी नैतिकता की खोज है कि आप उन मूल्यों को प्राप्त करें जो आपकी जड़ों से उभर के आये हैं, और आप अपने अहम् पे निरंतर कार्य करते रहते हैं, , ताकि वो आप में गुब्बारे की भांति गैस ना भर दे, और यह की आप धरातल पे ही जीयें और तब आप अगर दिन में दस बार भी गिरेंगे तब भी आप अपने आपको मारेंगे नहीं|आप उठेंगे , अपने आपको झाडेंगे और फिर आगे बढ़ जायेंगे|और वो छवि मेरे अंतःकरण तक समा गई और बहुत ही मददगार तरीके से मेरे साथ रही|
वर्षों पहले मैंने पॉल तिल्लीच , एक महान धर्म शास्त्री , के कृतियों को पढ़ा था: मैं उस वक़्त बीस वर्ष का था और यूनियन theological सेमिनरी , न्यू यॉर्क में पढता था, और उस वक़्त मैं नहीं समझ पाया था कि वो क्या बात कर रहे हैं| तिल्लीच के लिए प्रभु की छवि, हमारे अस्तित्व का धरातल है| मुझे लगता है,अब मेरी समझ में आ रहा है कि वो महत्वपूर्ण शब्द हैं: जमीनीपन (groundedness) ही है जिसकी हमें तलाश है; एक ठोस जमीन हमारे पैरों के नीचे|
मनन के लिए बीज प्रश्न: इस बात से आप क्या समझते हैं कि आध्यात्मिक खोज का लक्ष्य अपने पैरों को जमीन पे रहने देना है? क्या आप एक व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं जब आप अपने और “जमीनी सतह” के बीच की दूरी कम कर पाए हों? आपको अपनी “ऊँचाई “ से सावधान रहने में किस चीज़ से मदद मिलती है?