हम वास्तव में कभी भी “वह” (it) का अनुभव नहीं करते| द्वारा कुलादासा
हमारे निरंतर वर्णित मन ( narrating mind) का “मैं ( I) “, इस चीज़ से ज्यादा कुछ भी नहीं है, कि वो एक काल्पनिक, पर आसानी से इस्तेमाल किये जाने वाला शब्द है, जो हमारे मन में घटित हो रहे , सारे विभिन्न चेतन अनुभवों, को रचने में इस्तेमाल होता है| हमारी अस्मिता की धारणा , सिर्फ निरंतर वर्णित मन का “मैं “ है , वो गुरुतत्व का मध्य, जो सभी कहानियों को जोड़ता है | इसी तरह “वह “(it) भी एक निरंतर वर्णित मन का एक और काल्पनिक शब्द है, एक आसान काल्पनिक कहानी, जो सिर्फ इसलिए मढ़ी गई है कि कहानी के सारे पहलूओं को जोड़ा जा सके| सच्चाई तो यह है कि हमें कभी भी किसी अस्तित्व का अनुभव नहीं होता जो “वह ” से मेल खाता हो| जो अनुभव होता ही भी है, वो छवि, धारणा, सुख दुःख विषयक एहसास और अन्य कोई भी भावनाएं हैं, जो हमारी चेतना में उभर रही होती हैं|
निरंतर वर्णित मन “ मैं – वह” , “स्वयं -अन्य” शब्दों का इस्तेमाल , हमारे अवचेतन मन के अन्य भागों से आने वाली जानकारी को , एक अर्थपूर्ण तरीके से संगठित के लिए करता है| पर हमारा विवेकी मन “मैं” और “वह “ को वास्तविक अस्तित्व वाले मानता है, और “स्वयं व अन्य “ की धारणा को और मजबूत करता है ताकि वो असली और महत्वपूर्ण लगें| अतः निरंतर वर्णित मन का काल्पनिक” मैं “, हमारे विवेकी मन का अहम् , अस्मिता बन जाता है और “वह “ सुख दुःख विषयक एहसास और हमारी उठ रही भावनाओं का कारण बन जाता है|
यह मुख्य भ्रान्ति , हमें उस और ले जाती है जहाँ राग और द्वेष रंजित लक्ष्य, उभर रहे होते हैं| और अगर ऊपर वर्णित का उदाहरण लें तो यह माने कि पहमे तो हम एक चिड़िया को अच्छे से देखने के लिए दूर बीन का इस्तेमाल करेंगे, फिर ऊस चिड़िया के पीछे जायेंगे, फिर उस पर कब्ज़ा करेंगे, या एक अन्य चिड़िया खरीद कर उसे पिंजरे में कैद करेंगे, यहाँ तक की उस चिड़िया को मार कर उसमे भूसा भर देंगे ताकि हम उसका आने वाले समय में भी आनंद ले सकें| उपरोक्त, कारण पूर्वक प्रकरण, कुछ इस प्रकार आगे बढ़ता है “ मैंने देखा, मैंने पहचाना , मुझे अच्छा लगा, मैंने उसे चाहा,मैं उसके पीछे गया, मैंने उसे पाया और मैंने उसका आनदं लिया “ , और फिर अनिवार्य रूप से जैसा होता है, “मैं उससे बिछुड़ा , और मुझे अत्यंत दुख हुआ|”
पूर्व के संग्रहित अनुभवों की जानकारी एवं पूर्व की कहानियों से लेते हुए, हमारा विवेकी मन , हमारे निरंतर वर्णित मन की कहानियों को ढालता है, और हमारी अस्मिता , अहम् के लिए एक निजी इतिहास , एक विश्व का उदाहरण तैयार करता है| भविष्य में, धारणाएं, एवं विवेचनाएँ , जो इन्हीं गंभीर शब्दों से जुडी हैं, राग , द्वेष और अन्य भावनात्मक प्रतिक्रियाएं को पैदा करेंगी, जो कहने को इसी अहम्, अस्मिता की रक्षा एवं उसके और बढ़ावे के लिए होंगीं| फिर निरंतर वर्णित मन उन स्व अभिन्यस्त ( self oriented) विचारों और भावनाओं को एक नई कहानी में रच देता है| और इसी तरह अहम् अस्मिता को ज्यादा व्याप्त करने का चक्र चलता रहता है|
संक्षेप में, निरंतर वर्णित मन सिर्फ सभी विभिन्न चेतन घटनाओं को , जो उसने विभिन्न अवचेतन मन से ली हैं, मिला कर , हमारी चेतना में वापस व्यक्त करता है| परन्तु हमारा आत्मबोध , वो चलित अंतर्मन , जो दुनिया दारी के विषयों से अलग , अपने आप में , एक अलग अस्तित्व रखता है : आत्मबोध उस बात पे निर्भर करता है कि हमारा विवेकी मन उन कहानियों को कैसे विवेचन करता है|
मनन के लिए बीज प्रश्न : आप “ मैं :और “वह “ के काल्पनिक परन्तु आवश्यक शब्द होने से, कैसा नाता रखते हैं? क्या आप अपनी एक व्यक्तिगत कहानी साझा कर सकते हैं, जब आप अपने विवेकी मन की ,गलत धारणाओं के द्वारा उत्पन्न राग एवं द्वेष , के प्रति जागरूक हुए हों? आपको अपने अहम्, अस्मिता के घुमावदार चक्र से बाहर निकलने में किस चीज़ से सहायता मिलती है?