मानव से जुडी हर वस्तु प्राकृतिक है
-एलन वॉट्स (८ मई, २०१९)
मनुष्य प्रकृति से उतना ही जुड़ा है जितना कि एक पेड़, और हालांकि वह स्वतंत्र रूप से दो पैरों पर चलता है और उनकी जड़ें जमीन में नहीं हैं, वह किसी भी तरह से आत्म-निर्भर, स्वयं चलायमान एवं स्वयं निर्देशित नहीं है। क्योंकि उसका जीवन पूरी तरह पेड़, कीड़ा और मक्खी की तरह उन्हीं कारकों पर निर्भर करता है, प्रकृति, जीवन, ईश्वर या जो कुछ भी है, उसकी सार्वभौमिक शक्तियों पर। किसी रहस्यमय स्रोत से उसमें अनवरत जीवन का प्रवाह होता है; यह सिर्फ जन्म के समय ही उसके अंदर नहीं जाता और मृत्यु के समय बाहर नहीं आता- वो अनवरत बहने वाली धारा की शाखा है, एक धारा जो कि रक्त को उसके नसों में दौड़ाती है, जो फेफड़ों को चलाता है और उसके लिये सांस लेने के लिये वायु लाता है, जो पृथ्वी पर उसके लिए भोजन उगाता है और उसके चेहरे पर सूर्य के प्रकाश को लाता है।यदि हम उसके शरीर की केवल एक कोशिका को देखें तो हम उसमें ब्रह्माण्ड पते हैं, क्योंकि सूरज, चाँद, और तारे उसे लगातार बनाये रखते हैं; हम इसे फिर देखते हैं अगर हम उसके मन की गहराइयों में डुबकी लगाते हैं, मनुष्य और पशु दोनों में पुरातन आग्रह हैं, यदि हम और गहराई में देख सकें तो हम पौधों और चट्टानों से भी उनकी समानता पा सकते हैं।[...]
प्रकृति से मानव आत्मा का अलगाव आमतौर पर सभ्यता की एक घटना माना जाता है। यह अलगाव वास्तविक की तुलना में ज्यादा स्पष्ट है, क्योंकि ईंट, कंक्रीट और मशीनों द्वारा जितनी ज्यादा प्रकृति रोकी जाती है, यह उतनी ही ज्यादा मानव मन मे पुनः प्रभावकारी होती है, आमतौर पर एक अवांछित, हिंसक एवं परेशान करने वाले आगंतुक के रूप में। लेकिन वास्तव में मनुष्य की रचनाएँ, उसकी कला, उसका साहित्य, उसकी इमारतें, प्रकृति की कृतियों जैसे पक्षियों के घोंसले और मधुमक्खियों के छत्ते से केवल गुणवत्ता में भिन्न होती हैं, प्रकृति में नहीं। मनुष्य की रचनाएँ असीम रूप से अधिक और प्रवीण हैं, लेकिन यही प्रवीणता, उसके डर के साथ, अलगाव की उसकी भावना को बढ़ाती है, उसे यह विश्वास दिलाती है कि वह अपने आप में एक निर्माता है, प्रकृति से अलग। एक बार फिर से यह उनके आत्मसम्मान के खिलाफ जाना होगा, उसे यह स्वीकार करना होगा कि उसकी शानदार तर्कशक्ति और इसके सभी कार्य उसे प्रकृति का स्वामी नहीं बल्कि सेवक बनाते हैं। अपनी तर्क शक्ति के कारण विचलित और अपने भय से भयभीत, मनुष्य प्रकृति से अपनी स्वतंत्रता चाहता है न कि प्रकृति के साथ मिलकर चलना - "जिसकी सेवा पूर्ण स्वतंत्रता है।" [...]
श्रेष्ठता के लिए आदमी का संघर्ष शानदार और दुखद है; लेकिन यह काम नहीं करता है। और वह जो करता है उसमे उतनी कठिनाई नहीं है जितना कि वह जो सोचता है उसमें है। अगर वह अलगाव की जगह एकता चाहे तो इसमें यह शामिल नहीं होगा जिसे आम तौर पर "प्रकृति में वापस आना" कहा जाता है; उसे अपनी मशीनों और शहरों को छोड़ना नहीं होगा और रिटायर होकर जंगलों और झोपड़ियों में नहीं रहना पड़ेगा ।उसे केवल अपने दृष्टिकोण को बदलना होगा, अपने अलगाव के लिए वह जो हर्जाना भरता है, वह केवल परोक्ष रूप से भौतिक तल पर होता है। वे उसके दिमाग से उत्पन्न होते हैं और वहीं सबसे गंभीर होते हैं।
विचार के लिए मूल प्रश्न: आप इस भाव से क्या समझते हैं कि प्रकृति की सेवा में पूर्ण स्वतंत्रताहै ? क्या आप अपना कोई व्यक्तिगत अनुभव बाँट सकते हैं जब आपने प्रकृति से अलगाव की बजाए उसके साथ मेल को खोजा हो? अलगाव के इस पिंजरे से छूटकर प्रकृति के साथ मेल की ओर जाने मे आपको किस चीज़ से मदद मिलती है ।
“खुशी का अर्थ : आधुनिक मनोविज्ञान और पूर्व के ज्ञान में आत्मा की स्वतत्त्रता की खोज।” से