उपस्थिति: सजगता यहाँ मौज़ूद होने की गुणवत्ता
- कबीर हेल्मिन्स्की द्वारा लिखित (१० फ़रवरी, २०१६)
सभी महान आध्यात्मिक परंपराओं में एक आम विषय पाया जाता है। यह कई नामों से जाना जाता है - जागरण, स्मरणशक्ति, माइंडफुलनेस, ध्यान, स्मृति, ज़िक्र, उपस्थिति - और कभी बिना किसी नाम के ही। चेतना की यह स्थिति इस दुनिया में रहने पर एक और विस्तार जोड़ देती है। जागरूकता की इस संकरी अवस्था, जिसे जागरूकता की एक पारंपरिक स्थिति की तरह मान लिया गया है, के परे एक शक्ति है जो हमारी अव्यक्त मानव क्षमता का ताला खोलने के लिए एक अद्वितीय कुंजी है।
किन्हीं खास धर्मों, जैसे बौद्ध धर्म में, ध्यानपूर्ण उपस्थिति का अभ्यास एक केंद्रीय तथ्य है। इस्लाम में स्मरण ही हर गतिविधि को योग्य बनाने का साधन है। ईसाई धर्म सिखाता है कि हम अपने महान संतों के अनुभव और अपने मन की प्रार्थना पर ध्यान दें। लेकिन सब प्रामाणिक आध्यात्मिक मनोभावों में चेतना की यह स्थिति एक मौलिक अनुभव और आवश्यकता है। सोच- विचार करने के लिए मैं इसे उपस्थिति कहूँगा।
उपस्थिति जागृत अवस्था में मौज़ूद रहने का गुण है। यह उच्चतर स्तर की चेतना को जागृत करना है जो और सभी मानवीय कार्यों को करने में मदद करती है - जैसे विचार, भावना, और क्रिया - विदित हो पाना, विकसित होना, और समन्वित होना। उपस्थिति वो तरीका है जिससे हम अपने आस-पास की जगह को घेर लेते हैं, साथ ही जैसे हम प्रवाहित होते है और हिलते-डुलते हैं। उपस्थिति हमारी छवि और भावुक स्वर को आकार देती है। उपस्थिति हमारी सतर्कता, खुलेपन, और अनुकूलता की सीमा का निर्धारण करती है। उपस्थिति इस बात का फैसला करती है कि हम अपनी शक्ति को रिसने और बिखरने देते हैं या उसे रूप और दिशा देते हैं।
उपस्थिति वो मानवीय आत्म-जागरूकता है जो इस ब्रह्माण्ड पर जीवन के क्रमिक विकास का अंतिम परिणाम है। इंसान की उपस्थिति दूसरे प्रकार के जीवों से केवल मात्रात्मक रूप से ही अलग नहीं है; मानवता एक नए प्रकार के जीवन का प्रतीक है, एक ऐसी केंद्रित आध्यात्मिक शक्ति जो संकल्प को जन्म देने के लिए पर्याप्त है। संकल्प, सजगता से चुनाव करने की शक्ति, द्वारा मनुष्य इरादे बना सकते हैं, अपनी प्रवृत्तियों और इच्छाओं से परे जा सकते हैं, खुद को शिक्षित कर सकते हैं और प्राकृतिक जगत का संचालन कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश, मनुष्य इस शक्ति को प्रकृति का शोषण करने और दूसरे इंसानों को पर निरंकुश शासन करने पर भी इस्तेमाल कर सकते हैं। इच्छाशक्ति की यह प्रबलता, जहाँ एक तरफ हमें सजग सद्भाव से जोड़ सकती है, तो दूसरी तरफ उसी सद्भाव से दूर जाने की दिशा में बढ़ा सकती है।
मैं उपस्थिति के बारे में एक मानव विशेषता के रूप में बात कर रहा हूँ, यह समझते हुए कि यह उस ईश्वरीय परम शक्ति की उपस्थिति है जो इंसान में झलकती है [...]। क्योंकि हम इसे, जो हम अपनी सीमाएं समझ रहे थे, उससे परे विस्तृत होती पाते हैं, इसलिए हम अलगाव और द्विविधता से मुक्त हो जाते हैं। उस समय हम इस उपस्थिति में होने की बात कर सकते हैं।
विचार के लिए कुछ मूल प्रश्न: आप उपस्थिति की दोधारी प्रकृति से क्या समझते हैं? क्या आप अपना कोई व्यक्तिग अनुभव बाँटना चाहेंगे जब आपने अपस्थिति को अपनी सीमाओं से परे विस्तृत होते पाया हो? ऐसी कौनसी साधना है जो आपको अपस्थित को रचनात्मक रूप से इस्तेमाल करने में मदद करती है?
कबीर हेल्मिन्स्की द्वारा लिखित लिविंग प्रेसैंस: ए सूफी वे टू माइंडफुलनेस एंड द एसेंशियल सेल्फ, पीपी.vii-ix, (जीवित उपस्थिति: सचेतता और अपने मौलिक रूप को पाने के लिए एक सूफी तरीका) से उद्धृत।