वो जगह जो दुःख से मुक्त है
- एकहार्ट टोली (८ अक्टूबर, २०१४)
यह संसार हमें जीवन में किसी न किसी समय संतुष्टि मिलने की आशा देता है, और हम आखिर उस संतुष्टि को पाने का लगातार प्रयास करते रहते हैं। कई बार लोग महसूस करते हैं, "हाँ, मैं अब उस स्थान पर पहुंच गया," और फिर उन्हें अहसास होता है कि, नहीं, वो अभी वहां नहीं पहुंचे, और फिर कोशिश जारी रहती है। इस बात को "ए कोर्स इन मिरेकल्स" (चमत्कारों का एक कोर्स) में बहुत खूबसूरत तरीके से व्यक्त किया गया है, जहाँ कहा गया है कि अहम का एक ही कथन है, " खोजो पर पाओ मत।" लोग भविष्य में मुक्ति खोजते हैं, लेकिन वह भविष्य कभी नहीं आता। तो आख़िरकार, उसे न खोज पाने की वजह से ही दुःख पैदा होता है।
और वही एक जागृति की शुरुआत है - जब हमें यह अहसास होता है कि, "शायद यह ठीक रास्ता नहीं है। शायद मैं जहां पहुंचने की कोशिश कर रहा हूँ वहां कभी नहीं पहुंचूंगा; शायद वह भविष्य में है ही नहीं।" इस संसार में हमेशा से भटकते हुए, अचानक, दुःख के प्रभाव से, यह अहसास होता है कि असल जवाब लौकिक उपलब्धियों में और भविष्य में शायद नहीं मिलेंगे। इस जगह तक पहुंचना बहुत से लोगों के लिए एक महत्त्वपूर्ण बात है। उस महान त्रासदी का अहसास - जब यह दुनिया जिसे जैसे वे जानते थे, और अपने आप के बारे में उन्होंने अब तक जो भी जाना था, जिसकी पहचान इस दुनिया के साथ बनी हुई थी, वह सब अर्थहीन हो जाता है।
ऐसा मेरे साथ हुआ। मैं आत्म-हत्या के बहुत करीब था और फिर कुछ ऐसा हुआ - अपने खुद के होने की भावना जो अलग-अलग पहचानों के माध्यम से जीवित थी, अपनी कहानी से जुडी पहचान, अपने आस-पास की चीज़ों और दुनिया से जुड़ी मेरी पहचान, वह ख़त्म गयी। उस क्षण में कुछ ऐसा उठा जिसमें एक गहरी और गहन स्थिरता, जीवतता, और अपने होने का अहसास था। मैंने बाद में उस अनुभव को "मौजूदगी" का नाम दिया। मैंने पाया कि शब्दों से परे, वही हूँ मैं। लेकिन यह अहसास कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं थी। मैंने जाना कि वह ओजस्वी जीवन से परिपूर्ण, गहरी स्थिरता ही मैं हूँ। बहुत साल बाद, मैंने उस स्थिरता को "निर्मल चेतना" कहा, जबकि बाक़ी सब कुछ अनुकूलित चेतना है। इंसान का मन वो अनुकूलित चेतना है जिसने विचारों के रूप में जन्म ले लिया है। अनुकूलित चेतना वह पूरा संसार है जिसे अनुकूलित मन जन्म देता है। सब कुछ हमारी अनुकूलित चेतना है; चीज़े भी। अनुकूलित चेतना साकार के रूप में जन्म लेती है और फिर वह संसार बन जाती है।
इंसान के लिए अनुकूलित में खो जाना ज़रूरी लगता है। इस दुनिया में खो जाना, अपने चित्त में खो जाना, जो अनुकूलित चेतना है, उनके मार्ग का हिस्सा लगता है। फिर, ऐसे खो जाने की वजह से जो दुःख उठता है, हम सहज को अपने आप जैसा पाते हैं। और इसीलिए इस संसार से पार जाने के लिए हमें इस संसार की ज़रुरत पड़ती है। इसलिए मैं अपने खो जाने का बहुत आभारी हूँ। यह संसार इसी लिए बना है कि आखिर हम इसमें खो जाएं। इस संसार का उद्देश्य है कि इसमें हम दुःख पाएं, उस दुःख का सृजन करने के लिए जो लगता है हमारी जागृति को लाने के लिए ज़रूरी है। और फिर एक बार जब जागृति हो जाती है, उसके साथ एक अहसास आता है कि अब दुःख की कोई ज़रुरत नहीं है। अब दुःखों का अंत हो गया है क्योंकि आप संसार से पार जा चुके हैं। यही वो जगह है जो दुःख से मुक्त है।
विचार के लिए कुछ मूल प्रश्न: आप इस बात से क्या समझते हैं कि इस संसार का उद्देश्य है कि आप आखिर इसमें खो जाएं? क्या आप अपना कोई निजी अनुभव बांटना चाहेंगे जब आप को लगा हो कि दुःख की कोई ज़रुरत नहीं है? संसार से पार जाने के लिए हम संसार का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं?
एकहार्ट टोली का एनड्रयू कोहन के साथ साक्षात्कार। टोली ज़्यादातर अपनी पुस्तकों, "दी पावर ऑफ़ नाउ" और "ए न्यू अर्थ " के द्वारा जाने जाते हैं।